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जोधपुर में कला व संस्कृति को नया आयाम देने के लिए एक मासिक हिंदी पत्रिका की शरुआत, जो युवाओं को साथ लेकर कुछ नया रचने के प्रयास में एक छोटा कदम होगा. हम सभी दोस्तों का ये छोटा-सा प्रयास, आप सब लोगों से मिलकर ही पूरा होगा. क्योंकि कला जन का माध्यम हैं ना कि किसी व्यक्ति विशेष का कोई अंश. अधिक जानकारी के लिए हमें मेल से भी संपर्क किया जा सकता है. aanakmagazine@gmail.com

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Monday 22 September 2014


अनिमेष जोशी

यादो के सब्ज बाग की खुरचन हमेशा हमारे वर्तमान को परेशान करती है. हम जैसे-जैसे जीवन में आगे बढ़ते जाते हैं एकाएक उन सभी पलों के बारे में सोचना शुरू कर देते है जो हमारा हिस्सा होना चाहते थे. वर्तमान के प्रति एक प्रकार की खीझ हमें न चाहते हुए भी अपने भीतर पसरे मौन से उपजे एकांत की ओर ले जाता हैं; और धीरे-धीरे हम उन सारी स्मृतियाँ को अपने समीप पाकर वक्त को उसी जगह रोकने की चेष्टा कर बैठते है, जिनकी उहमियत रफ्तार में हम पकड़ ही न पाए. बहरहाल लंच बॉक्स फि़ल्म में खाने का डिब्बा महज डिब्बा न होकर उन सारी स्मृतियों को फिर से पकड़ने का माध्यम है ईलाके लिए जो  उसे कही-न-कही अपने आज में प्राप्त नहीं हो रहा हैं. साथ-ही-साथ यह एक तरह का वार्निंग सिग्नल है हमारे लिए जिसे हम समय रहते महसूस कर पाए तो अच्छा होगा.

हम अपने को  उस बाड़ तक सीमित नहीं रखता चाहते है जो हमारे लिए ही बनी है. दिन प्रतिदिन
बदलते परिवेश में हम हर वांछित बाड़ को अपना बनाना चाहते हैं जो हमारे लिए बनी ही नहीं है. पिज्ज़ा को रोज़ के भोजन में शामिल करने को  इस कदर आतूर दिखाई पड़ते हैं कि जैसे उसके बिना जीवन अब संभव ही नहीं है. इसी प्रवृति के चलते हम हर राह चलते व्यक्ति से ऐसा ना़ता जोड़ते की जुगत में रहते है चाहे इसके परिणाम स्वरूप हमें अपने कमीज़ का रंग ही खोंना क्यों न पड़े? ऊँची-ऊँची स्काई स्क्रैपर्समें दिनभर दमकती नियोन लाइट्सकब हमें एक चुम्बक के समान अपनी ओर खींच लेती है, यह बात ईलाके पति राजीवकभी समझ ही नहीं पाए. दिन भर की भाग दौड़ के बाद जब रात के खाने परं  दोनो को कुछ समय साथ बिताने के लिए मिलता है तो उस समय भी राजीव अपनी नज़रे टी.वी. में गडाए बंद हुए स्टॉक मार्केट का हाल फिर से जानने को उतावले दिखाई पड़ते है. जिसके पीछे एक ही मंशा दिखाई पड़ती हैं कि अपने वर्क प्लेसमें राजीव को  किसी भी सूरत-ए-हाल में यह सुनना न पड़े, क्या राजीव तुम से हम ये एक्सपेक्टनहीं करते हैं? कोई भी व्यक्ति अपनी डिग्रीया पर सवालिया निशान लगाना थोड़े ही पसंद करेगा. स्थिति तोसजान फर्नाडिसकी भी अच्छी नहीं है जो एक मशीन से ज़्यादा कुछ मालूम नहीं पड़ता है. उसे आज कल घर में थोड़ा समय मिलने लगा है. व¨ टी.वी. देखते हुए, खाना खाते हुए, किताब पढना सीख गया है. इससे पहले कभी उसे इतनी फुर्सत मिली भी कहा, हर कार्य को परफ़ेक्ट करना या अपने काम के आलावा कहीं ओर जीवन नहीं है, इस बात को अपने अंदर बैठा लेना. समय पर मुंबई की लाइफ लाइन कही जाने वाली लोंकल ट्रेन के फ़स्र्ट क्लासडिब्बे के लिए अवधि समाप्त होने से पहले ही पास बनवा लेना. अपने जीवन की साँझ की ऑर बढ़ते सफ़र में अब वो पत्नी भी कहां रही जिससे छोटी-छोटी बात पर मन मुटाव होता था.
लगभग 1890 के आसपास मुंबई में अलग-अलग औफिसों में डिब्बा पहुँचाने का चलन शुरू हुआ था. यह व्यवस्था उन लोगो के लिए शुरू की गई है जो सुबह-सुबह ही अपने घरों से काम पर निकाल जाया करते है. महानगर में दूरियां बहुत होने की वजह से लंच के समय वापस घर लौटना संभव नहीं होता हैं. बहरहाल एक दिन फर्नांडिस का डिब्बा गलती से बदल जाता है. यहाँ से उसके जीवन की साँझ को एक नया एक्स्टेन्शन मिलता है. इसे इस रूप में भी देखा जा सकता हैं कि पत्नी के जाने के बाद खाना केवल भूख मिटाने के लिए ही खाया जा रहा है और स्वाद किसे कहते है वो लगभग भूल चूका हैं. एकाएक गलती से आए डिब्बाने अनायास ही स्वाद वाली ग्रंथि का बोध करवा दिया. आखिर कोई व्यक्ति कितने समय तक आलू-गोभी खाकर कहेगा, इससे अच्छा कुछ हो ही नहीं सकता हैं. अपने पति को रिझाने के लिए ईलानए-नए प्रकार के व्यंजन सीखती रहती है. लेकिन कुछ भी बनाओं पति कभी पूरा डिब्बानहीं खाता है. उस रोज़ ईलाटिफि़न को खाली देखकर सकते में आ जाती है, साथ-ही-साथ अपने को उस मिशन में एक विजेता के रूप में पाती है जिसकी साइलेंट लड़ाई न जाने कब से लड़ रही है. उसी दिन शाम को पति के घर लौटने पर वो अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए पति से पूछ बैठती हैं, ‘आज डिब्बा कैसा लगा.पति जबाब देता है, ‘अच्छा था! वो तुमने आलू-गोभी बनाया था ना.’ ‘ईलासोच में पढ़ जाती है, उसने तो आलू-गोभी बनाया भी नहीं था. जिस व्यक्ति ने वो डिब्बा खाया उसे धन्यवाद स्वरुप एक चिट्ठी लिखती है. अगले रोज़ उसे नहीं मालूम की वो डिब्बा बदलेगा या नहीं परन्तु मन के किसी कोने में ईच्छा भी पाले बैठी हैं कि उसकी मेहनत का सही आकलन उसे पता चले. यहाँ से शुरू ह¨ता है ईला और फर्नाडिस के बीच पत्र व्यवहार का सिलसिला. ये आउट ओफ़ फैशनवाला सिलसिला लोंग किस रूप देखे पता नहीं किन्तु ये उन दोनों के लिए फिर से उस पुरानी स्मृतियाँ वाले सब्ज बाग में लौटने का संकेत भर है जिसका दायरा उनके आज में लगभग गौण हो चूका है.
     भूमंडलीकरण के इस दौर में जहां हमें बटन दबाते ही सब कुछ उपलब्ध हो जाता है, वही कुछ ऐसे लोंग भी अपनी उपस्थिती दर्ज कराते हैं जो  इस दौड़ का हिस्सा बने ही नहीं. पिछले पंद्रह सालो से देसपांडे आंटीअपने घर से बाहर नहीं निकली है. बाहरी बदलाव से वो एक दम अनजान है. उनके पति पिछले पंद्राह सालो से कोमा में है और वोईलाके माध्यम से अपना आज जी रही है. वो  ईलाके ऊपर वाले फ़्लैट में रहती है. सब चीझों का आदान-प्रदान टोकरी के द्वारा चलता रहता है. इस टोकरी का महत्व ईला और आंटी के आलावा कोई समझ भी नहीं सकता. आंटी के लिए भी एक माहोल बदलने वाली बात हो जाती है, वरना केवल डाईपरबदलने के अलाव उनके पास करने को कुछ है भी नहीं. बदलते परिवेश में चिट्ठी लिखना थोड़ा हास्यास्पद लगे परन्तु कभी-कभी संवाद के नए-नए माध्यम आपके मन में थोड़ा खीझ भी पैदा करते दिखलाई पड़ते है और हम गाहे-बगाहे ही हर उस वस्तु को याद करने लग जाते है. जिसका होना अपने काल में स्वीकृति के साथ-साथ उपहास का केंद्र भी रहा है. यहाँ चर्चा खतों के बारे में चल रही है तो मुझे रह-रहकर अमृता और इमरोज़ याद आ रहे है. जिनके बीच खतों का काफी लम्बा सिलसिला चला. कुछ समय के लिए इमरोज़ बम्बई में जा बसे थे. वो अमृता प्रीतम को हर सप्ताह किसी-न-किसी सिलसले में चिट्ठी लिखा करते थे. ये साठ के दशक की बात है जब दिल्ली का गलियारा अपने से उम्र में छोटे इमरोज़ के प्रति अमृता के लगाव को  देखकर प्रेम की नई डेफिनिशन गढ़ने के लिए अपने को  तैयार कर रहा था. उन दोंनो के बीच चले खतों का सिलसिला आज हमारे सामने किताब की शक्ल में उपलब्द्य है. लिटरेरी वल्र्ड में इसे कालजयी का दर्जा भी मिल चूका है. महानगरीय जीवन शैली में अपना होना के साथ-साथ उस कोने के लिए भी एक संघर्ष बदस्तूर चलता रहता है जो अपने लिए ही बना हैं. रिश्तों में एक प्रकार का खिंचाव आना हर घर की कहानी बनता जा रहा है. किसी के बाहरी स्वरुप से हम ज़ल्द ही आकर्षित हो जाते है. उसी के आधार पर हम उस व्यक्ति के साथ वैवाहिक बंधन की समरसता की चेष्टा कर बैठते है. ये हमारी सोच के हिसाव से हो  या हमारे तरह से चले यह जरूरी नहीं. हमारी बुनावट में सदैव हम नारी को  उस छोर का हिस्सा मान लेते है जहां से हर समय कोई भी मांग की निरंतर आपूर्ति जारी रहे. ‘‘अन्नपूर्णा मंडल की आखरी चिट्ठी’’ कहानी में ‘‘अन्नपूर्णा’’ अपने पिता को  लिखी आखिरी चिट्ठी में अब तक लिखें सारे पत्रों का हिसाब-किताब अपने पिता से मांगने की चेष्टा कर रही है. उसकी शादी जल्दी हो गई, प्रतिभाशाली होते हुए भी आगे पढ़ ना सकी, साथ-ही-साथ वंश बेल वाली परम्परा का भी निर्वाहन करने में सफल ना रही. उस पर लगे सारे दाग वो  कैसे मिटाए समझ नहीं पा रही है. जिस बरसाती केचुए से उसे बचपन से ही लगाव है, अब वो उसके शरीर पर लौटकर कोई नुकसान न कर दे, इसका भय उसे रोज-रोज खाएं जा रहा है. फ़्लैट से कूदने से पहले लिखी गई ये आखरी चिट्ठी क्या किसी भी तरह से ईला के जीवन से भिन्न है? सुधा अरोड़ा के लिखे सारे पात्र उनकी कोई भी कहानी में इस तरह से ही हम से प्रश्न करते नज़र आते है. यहाँ पर मुझे रह-रह कर वो सारी कतरने भी दिखाई दे रही है जो किसी के कूदने से व्याप्त सन्नाटे का बखान कर रही है. रह-रह कर ‘‘ईला’’ के मन में इस तरह का ख्याल आता रहता है. लेकिन खतों के जरिये जो सिलसिला शुरू हुआ है, वो उसे अपने जीवन को फिर से परिभाषित करने का एक नए संकेत के समान मान रही है. साथ-ही-साथ इस उबाऊ दिन चर्या से छुटकारा पाने के लिए महानगर को छोड़ अपने को खुद की बच्ची के साथ भूटानशहर का वासी बनने की इच्छा रख बैठी है. उसने कही पढ़ रखा है भूटानमें ग्रॉस डोमेस्टिक खुशी सबसे ज़्यादा है. खाने का डिब्बा ‘‘असलम’’ के जीवन को भी प्रभावित कर रहा है,  वो फर्नाडिस से ऑफिस का काम सीखता हैं तो असलम उसे बाहर की दुनिया में मौजूद उन सभी रंगों को  फिर से देखने को  कहता है, जिसका आभास पत्नी के रहते दूरदर्शन पर ‘‘ये जो  है जि़न्दगी’’ सीरियल देखते समय कभी महसूस ही नहीं हुआ. अपने में आए बदलाव के कारण ही वो एक रोज पेंटिंग को खरीदता है और चित्रकार के हुनर की तारीफ भी करता है. न जाने ऐसे कितने ही काम है जो फर्नांडिस को  अभी रिटायर होने से रोक रहे है. वो उन गलियों को नए सिरे से देखना चाहता है, जहां कभी उसका बचपन गुजरा था. इस तरह आए बदलाव को फर्नाडिस भी समझ नहीं पा रहा है. एक ओर उम्र का बंधन उसे ईलासे मिलने से रोक रहा है तो  दूसरी तरफ़ ईला के ग्रॉस डोमेस्टिक खुशी वाले शहर भूटानको  देखने का भी कर रहा है. अभी-अभी जवान होकर वो  फिर से बुढ़ा नहीं होना चाहता है. अपने जीवन के बचे हुए बसंत को उन सारी खुरचन¨ के साथ जीना चाहता है जहां वो हो कर भी नहीं था. छोटे-छोटे पलो से भरा पूरा ये लंच बॉक्समुझे इजाजत फि़ल्म के उस गाने के समान लगता है जिसके बोल है-
छोटी सी कहानी से
बारिशो  के पानी से
सारी वादी भर गई

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