About

जोधपुर में कला व संस्कृति को नया आयाम देने के लिए एक मासिक हिंदी पत्रिका की शरुआत, जो युवाओं को साथ लेकर कुछ नया रचने के प्रयास में एक छोटा कदम होगा. हम सभी दोस्तों का ये छोटा-सा प्रयास, आप सब लोगों से मिलकर ही पूरा होगा. क्योंकि कला जन का माध्यम हैं ना कि किसी व्यक्ति विशेष का कोई अंश. अधिक जानकारी के लिए हमें मेल से भी संपर्क किया जा सकता है. aanakmagazine@gmail.com

सदस्यता

सदस्यता लेने हेतु sbbj bank के निम्न खाते में राशि जमा करावे....

Acoount Name:- Animesh Joshi
Account No.:- 61007906966
ifsc code:- sbbj0010341

सदस्यता राशि:-
1 वर्ष- 150
2 वर्ष- 300
5 वर्ष- 750

राशि जमा कराने के पश्चात् एक बार हमसे सम्पर्क अवश्य करे....

Animesh Joshi:- +919649254433
Tanuj Vyas:- +917737789449

प्रत्यर्शी संख्या

Powered by Blogger.
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Blogger templates

Blogger news

Sunday 29 June 2014



निखिल खण्डेलवाल

संस्कृति; संस्कृत भाषा का शब्द है, और संस्कृति का अर्थ होता है संस्कार का पूर्ण रूप,  और इस शब्द से बना संस्कृति यानी जो हमें संस्कार प्रदान करती है. यही हमें जीना सिखाती है. हमारे यहाँ प्रत्येक क्रिया कलाप के पीछे ‘संस्कार’ जुड़े होते है. यही हमें अपने होने का बोध कराते है.
यही वह संस्कार है जो हमें सार्थक बनाते है, सक्षम बनाते हैं व मानसिक बल देते हैं. एक तरह से कहा जाए तो हमें पूर्ण करते है. अलग-अलग संप्रदाय को जोड़ने में भी यह एक अहम भूमिका निभाते है. जहाँ जिस समुदाय के लोग होंगे वहाँ कि संस्कृति उनके अनुसार होगी. क्योंकि वो ही उन्हें जीवन जीने का तरीका सिखलाती है. यह हमारी माँ की तरह है,जो हमें बोलना, खाना व पहनना सिखाती है. अगर इसमें इतने गुण है तो यह हमारे हाथ से रोज़ फ़िसलती क्यों जा रही हैं? दिन-प्रतिदिन इसका आकार क्यों छोटा होता जा रहा है? जब व्यक्ति अपना मूल छोड़कर किसी और का दिखाया हुआ मार्ग का अनुसरण करता है तो वो इस कोशिश में निरंतर अपने को खो देता है. ऐसा ही हमारे साथ हो रहा है. हमारी बोलचाल की भाषा का स्वरूप हमारे व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव छोड़ता है, किसी के साथ किए गए वार्तालाप में हम जिस किसी स्थान से संबंध रखते हैं, उसकी झलक होना लाज़मी है.सामने वाला व्यक्ति भी आपकी उसी खासियत के लिए आपको एक विशेष दर्जा प्रदान करता है.
                                               

                        
Sunday 22 June 2014

                तन्मय सेठी


            ‘धारा एक सौ चवालीस’ किशोर सिन्हा द्वारा रचित नाटक है  जो लेखक के जीवन की एक घटना से प्रभावित है. नाम के अनुरूप ही यह एक शहर में धारा एक सौ चवालीस लगाने से उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों व जन समान्य के मनोभावों का सजीव चित्रण है. लेखक ने न केवल आम जनता की विवशता का उल्लेख किया है, बल्कि साथ ही सरकारी अफसरों व नौकरशाही की कठिनाइयों पर भी प्रकाश डाला है. लेखक ने नाटक में ना तो किसी को विवश दिखाया है और ना ही किसी को बहुत शक्तिशाली. सारा प्रसंग बहुत ही संतुलित लगता है और वास्तविकता का प्रभाव उत्पन्न करता है.

        कथा पक्ष पर यह रचना जितनी भरी-पूरी व समृद्ध है, उसी तरह मंचन में भी यह बहुत सजीव व जटील है. नाटक में कोई भी किरदार मुख्य नहीं है, पर अपनी गौण भूमिकाओं में सिमटकर भी हर पात्र अपनी एक छाप छोड़ता है. नाटक का मंचन किसी भी ना निर्देशक के लिए बड़ा ही चुनोतिपूर्ण हो सकता है. मूलतः नाटक तेराह अंकों में विभाजित है, जिसमें कहानी को पूर्णतः निभाने के लिए रिक्शा, बस से लेकर जेल व दंगल तक का मंचन किया जाना अत्यंत आवश्यक है. नाटक में लाइट व साउंड के विपुल उपयोग की संभावना है.  मानवीय दर्द, हिंसा, सन्नाटा और भीड़ आदि को उजागर करने में इनका उपयोग बहुत महत्वपूर्ण साबित हो सकता है.
Sunday 15 June 2014

अनिमेष जोशी


          सब कुछ वर्तुल का वह हिस्सा है जो अपनी ही बनाई परछाईयों के विरूद्ध या विपरीत चलना चाहता हैं. जीवन खिड़की के दोनों ओर है, पर इधर से उधर जाने के लिए आपको अपने हिस्से की हवा अपने साथ ले जानी होंगी. सलोमाजी गोबाली की केवल कराहना ही हमें सुनाई देती हैं. नौ महीने तक जिस परीक्षा की तैयारी उसने कि उसका परिणाम आने वाला है. खिड़की खुलतीं है; नर्स ज़ोर से कहती है सलोमाजी को लड़की हुई है, उसकी माँ खिड़की के पास आती है, नर्स कि बताई सूचना को अनसुना करती हुई, दोबारा दरबाजे को हल्के से खटखटाती है. उसके कानों ने जो सूना उसको दूसरी नर्स से कन्फर्म करती है, वहाँ से मुड़ती है  बिना किसी से कुछ बात किए. चुपचाप अपना रास्ता नापने की फ़िराक में रहती है. सलोमाजी के ससुराल वाले बधाई देने के लिए उसको रोकते है, वह बिना किसी भावावेग के आगे बढ़ जाती हैं. इसके बाद क्या हुआ, क्यूँ हुआ और जो हुआ वह सही था या गलत वह सलोमाजी जाने, उसकी माँ का उससे संबंध केवल यहीं तक था. 

         ‘जफ़र पनाही’ अपनी किसी भी फ़िल्म में कोई कहानी शायद कहते ही नहीं हैं, वह आपके सामने अलग-अलग मनोदशाएँ उकेरते है. अगर आपको कहीं कोई कहानी नज़र आ रही है या कहानीनुमा जैसा कुछ आपकी आखें चलचित्र के माध्यम महसूस कर रही है, तो किसी फ़िल्मकार के लिए इससे बड़ा कॉम्प्लिमंट क्या हो सकता है.
Sunday 8 June 2014
  डॉ. विकास कपूर
 

             यों तो किसी का भी जाना दुखदायी होता है. पर जब एक हँसती खिलखिलाती किशोरी, नौकरी के सिलसिले में यात्रा करते हुए सड़क दुर्घटना की शिकार हो जाती तो कलेजा मुँह को आ जाता है. अपने छोटे से जीवन काल में इस किशोरी ने जिन व्यक्तियों से जुड़ाव रखा होगा, वे सब उमड़ पड़े थे परिजनों का दुख बाँटने और सम्वेदना व्यक्त करने के लिए. शोक सभा में कुछ लोगों ने उपस्थिति जनसमूह को संबोधित करते हुए दिवंगत आत्मा को एक अच्छी इंसान, एक नेक, परोपकारी व्यक्तित्व की धनी, मेधावी छात्रा, मित्रों-रिश्तेदारों की लाड़ली आदि कहा. एक छोटा-सा समूह इस पूरी प्रक्रिया के दौरान वहाँ मौजूद था. एक खामोश, अफसुर्दा और सहमा हुआ समूह. वे एक संस्था से जुड़े रंगकर्मी थे जो उस किशोरी के साथ कुछ प्रस्तुतियों में कार्य कर चुके थे. यद्यपि उन्होंने कुछ कहा नहीं पर अपनी सहकर्मिणी को रंगकर्मी की संज्ञा से ना पुकारा जाना उन्हें विचलित कर गया था. सभा समाप्ति पर उस समूह ने मन हल्का करने के मंतव्य से चाय की थड़ी का रुख किया. 

               दरअसल उन सभी को रह-रह कर उन रंगप्रदर्शन और रंग महोत्सव की स्मृतियाँ सता रही थीं जिसमे वे सब उस किशोर वय युवती के साथ नेपथ्य अथवा  मंच पार्श्व का कार्य कर
Tuesday 3 June 2014

  सुषमा त्रिपाठी

            बंगाल को देश की सांस्कृतिक राजधानी माना जाता है, और संस्कृति का प्रभाव यहा के शिल्प पर भी दिखायी पड़ता है। आप चाहे विश्वभारती के बाटिक की बात करें या जूट के उत्पाद की या फिर मूर्तिशिल्प खासकर शोला के काम की, एक खास तरह की सादगी और अभिजाज्यता बगाल की कलाओं में साफ तौर पर दिखायी पड़ती है। खासकर उत्सवों के दौरान आज भी बंगाल के पारंपरिक घरों में शोला यानि बंगला भाषा में कहें तो डाकेर साज का बेहद महत्व है। 
           शोला एक तरह का पौधा है, जिसकी छाल को सुखाकर उससे कागज से भी पतला सफेद फाइबर तैयार होता हैं जिससे प्रतिमाओं के आभूषण तैयार किये जाते हैं। खासकर धार्मिक उत्सवों के दौरान इसकी मांग काफी बढ़ जाती है, शायद इसकी सादगी ही इसका बल है। पूजा कोई भी हो, डाकेर साज ही वास्तविक तौर पर सजावट के लिए इस्तेमाल किया जाता है और दुर्गापूजा तो ऐसा समय है जिसका इंतजार यहां के कारीगर साल भर करते हैं।  बंगाल के मुशिर्दाबाद से लेकर दक्षिण 24 परगना से लेकर उत्तर 24 परगना और कोलकाता के प्रख्यात कुम्हारटोली के छोटे - छोटे घरों में शोला का काम होता है। मूर्तिकारों को जहां कुम्हारटोली में पाल कहा जाता है, वहां शोला का काम करने वाले कारीगर मालाकार कहे जाते हैं। 
            
              बंगाल में हस्तशिल्प की खरीददारी करने के लिए आने वाले पर्यटक शोला से