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Sunday 15 June 2014

अनिमेष जोशी


          सब कुछ वर्तुल का वह हिस्सा है जो अपनी ही बनाई परछाईयों के विरूद्ध या विपरीत चलना चाहता हैं. जीवन खिड़की के दोनों ओर है, पर इधर से उधर जाने के लिए आपको अपने हिस्से की हवा अपने साथ ले जानी होंगी. सलोमाजी गोबाली की केवल कराहना ही हमें सुनाई देती हैं. नौ महीने तक जिस परीक्षा की तैयारी उसने कि उसका परिणाम आने वाला है. खिड़की खुलतीं है; नर्स ज़ोर से कहती है सलोमाजी को लड़की हुई है, उसकी माँ खिड़की के पास आती है, नर्स कि बताई सूचना को अनसुना करती हुई, दोबारा दरबाजे को हल्के से खटखटाती है. उसके कानों ने जो सूना उसको दूसरी नर्स से कन्फर्म करती है, वहाँ से मुड़ती है  बिना किसी से कुछ बात किए. चुपचाप अपना रास्ता नापने की फ़िराक में रहती है. सलोमाजी के ससुराल वाले बधाई देने के लिए उसको रोकते है, वह बिना किसी भावावेग के आगे बढ़ जाती हैं. इसके बाद क्या हुआ, क्यूँ हुआ और जो हुआ वह सही था या गलत वह सलोमाजी जाने, उसकी माँ का उससे संबंध केवल यहीं तक था. 

         ‘जफ़र पनाही’ अपनी किसी भी फ़िल्म में कोई कहानी शायद कहते ही नहीं हैं, वह आपके सामने अलग-अलग मनोदशाएँ उकेरते है. अगर आपको कहीं कोई कहानी नज़र आ रही है या कहानीनुमा जैसा कुछ आपकी आखें चलचित्र के माध्यम महसूस कर रही है, तो किसी फ़िल्मकार के लिए इससे बड़ा कॉम्प्लिमंट क्या हो सकता है.
‘द सर्कल’ एक पूरे चक्र की कहानी बयाँ कर रही है जिसकी पृष्ठभूमि है तो ईरान, परन्तु इसके इफ़ेक्ट व इम्पैक्ट आपके और मेरे जीवन पर उतने ही लागू होते हैं, जितने फ़िल्म के माध्यम के द्वारा उसकी बानगी को जी रहे सभी किरदार. पेरोल पर निकली तीन लडकियाँ एक अनजाने डर को अपने अंदर महसूस करते हुए, यहाँ-वहाँ घुम रही है एक अन्य साथी की तलाश में जो उन्हें जेल में मिली थी. जेल में छोटे-मोटे काम के बदले कुछ रुपये जो उन्होंने कमाएँ उनसे वह परी की मदद करना चाहते है, जो अपने पेट में अनजाहे गर्भ को लेकर इधर-उधर घुम रही है.
         उसकी तलाश का क्रम एक ऐसा चक्कर शुरु करता है, जो वापस तीनोँ को अलग-अलग मोड़ पर ले जाकर खड़ा कर देता है. नर्गिस की इच्छा अपने गाँव रोज़्लिक जाने कि है, वह अपनी सहेली अराजू को बीच बाज़ार में एक पेंटिंग को दिखाकर कहती है, यह पेंटिंग उसके गाँव से मिलती-जुलती है, साथ-ही-साथ पेंटर की एक गलती की ओर इशारा भी करती है जो इसमें कुछ और फुल बना देता तो ये वह जगह हो जाती जहाँ वो और उसका भाई बचपन में खेला करते थे. परी भी आज़ सुबह ही जेल से छूटी है. और उसका भाई उसके घर में रहने के खिलाफ़ है. परी को अपनी कोई चिंता नहीं है. वह अपने को उस बच्चे से अलग करना चाहती है जिसके पिता का उसके जीवन में अब कोई अस्तित्व नहीं है. मर गया या मारा दिया गया कुछ पता नहीं है. चार महीने का गर्भ एक समस्या बनकर उसके सामने खड़ा है. जिसकी पीड़ा जेल में भोगी गई यातना से भी अधिक है. वो अपनी सहेली के पास मदद के लिए जाती है लेकिन वह एक नर्स होते हुए भी उसकी मदद करने से मना कर देती है. क्योंकि ऐसा करने पर उसके पति के साथ उसके संबंध खराब हो सकते है. जो खुद भी एक डॉक्टर है. रात को शहर के अलग-अलग चोराहों पर आपका परी जैसी अनेक औरतें नज़र आ जाएगी जो अपने गर्भ में मोजूद बच्चे से अलग होना चाहती है.
           साथ-ही-साथ कुछ ऐसी भी दिखेगी जो दूर किसी कार के पीछे खड़े होकर यह आस लगा बैठी हैं कि होटल में आता-जाता कोई व्यक्ति तो उनके बच्चों को अपने साथ घर ले जाएगा. जब तक कोई वहाँ आता नहीं है, तब तक मन बहलाने के लिए माँ ने उसके हाथ में खिलोना तो पकड़ा ही रखा है. बच्चे के हाथ का खिलौना और माँ का जीवन उस चाबीं वाले खिलोने के समान है, जो ना चाहते हुए भी चाबीं भरने पर कई करतब दिखलाता हैं. कहानी को दिन और रात के बराबर हिस्सों में बाटा गया है. वैसे कहानी का सारा घटनाक्रम केवल एक दिन का है. रात का डर उस समाज की औरतों पर ही हावी हो ऐसा नहीं है. कुछ ऐसे भी है जो पुलिस के द्वारा पूछे जाने पर यह कह रहे है, “मैं एक शरीफ आदमी हूँ यह औरत जबरदस्ती मेरी गाड़ी में बैठ गई.” आपको पूरे सामज के द्वारा एक ऑब्जेक्ट के तोर पर देखा जाना. इसका गुस्सा सताई गई औरतों में इस हद तक घर कर गया है कि वे बेधड़क सबके सामने अपना गुस्सा निकलना चाहती हैं सिगरेट पीकर. इसको बहुत बड़े रूपक के रूप में देखा जा सकता है. जो व्यवस्था को बदलने की माँग कर रहा है. निर्देशक ने एक सीन में एक स्त्री को सब समस्याओं से अपने को मुक्त रखकर सिगरेट पीते हुए दर्शाया भी है. बहुत ही कम फिल्में ऐसी होती है जहाँ पर फ़ेड इन व फ़ेड आउट का सही तालमेल दिखाई पड़े. फ़िल्म के शुरु में व अंत में जो फ़ेड इन व फ़ेड आउट होता है दोनों ही स्थिति में खिड़की हमको नज़र आ रही है. लेकिन फ़ेड इन में हमें जो खिड़की दिखाई दे रही है, उसके खुलने पर हमें अभी-अभी जन्मे बच्चे का पता लगता है. जो इस समाज को किस रूप में स्वीकार करेगा इसका बोध होना मुश्किल है. इसके ठीक उलट फ़ेड आउट से पहले हमारे सामने जो खिड़की बंद हो रही है; वो जेल के उस छोटे-से सेल का हिस्सा है, जहाँ आपको वह सारी औरतें नज़र आएगी जो किसी-ना-किसी चोराहों से पकड़ कर यहाँ लाई गईं हैं. इनके जीवन की अधूरी यात्रा की पीड़ा ने ही निर्देशक को ‘द सर्कल’ की परिकल्पना के लिए शायद बाध्य किया हो. हालांकि, स्थान बदलते है पर समस्या तो सब जगह वैसी ही रहती है. जिस प्रकार अपने कोने को पाने का संघर्ष इस फ़िल्म में है, कुछ-कुछ वैसा ही सुगंधा के जीवन में भी चल रहा है.
           जो ‘केयर ऑफ स्वात घाटी’ कहानी की प्रमूख किरदार तो है. अपितु, वह अपने पति से वह स्पेस जाह रही है, जहाँ उसके होने का अर्थ उसे पता चले. वो रंगमंच करना चाहती है. जो थोड़ा-सा समय उसके पास बचता है घर-परिवार के काम के बाद. पर क्या यह उसके पति को स्वीकार होगा? निर्देशक अपने नए नाटक के लिए पौराणिक चरित्र ‘गार्गी’ का निर्वाहन लोगों के सामने सुगंधा से करवाने की इच्छा रखता हैं. मुँह पर कई घाव लेकर वह मंच पर उतरती है. नाटक सफल होता हे, लेकिन उसके जीवन के ‘केयर ऑफ’ पर सवाल पैदा हो जाता है. वह कहा जाए और कहा रहे. कहानी का स्वात घाटी से सीधे तोर पर कोई संबंध नहीं है. लेकिन, कहानी की लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ ने इसे एक रूपक के रूप में रखा है. जो अलग –अलग पर्दों के पीछे की घुटन को हमारे सामने लाने का एक प्रयास भर है.
                  ‘जफ़र पनाही’ अपनी हर फ़िल्म में कोई-ना-कोई समस्या को इंगित करते है. समस्या का कभी भी तुरन्त हल नहीं होता है. बदलाव की रफ्तार हमेशा धीमी ही होती है. जो लोग कला के किसी भी माध्यम से अपने सामज में व्याप्त दोहरे मापदंड पर एक चोट करते हे, इसका नुक्सान उनका परिवार किसी-ना-किस रूप में सहता ही है. Propaganda(मत प्रचार) का चार्ज लगाकर ईरान की सरकार ने ‘जफर पनाही’ से सब कुछ छिन लिया है, यहाँ तक के उनके साँस लेने पर भी पैनी नज़र रखी जा रही है. दिसम्बर 2010 से उन्हें छः साल की जेल व 20 साल के लिए किसी भी प्रकार की फ़िल्म बनाने पर पाबन्दी है.

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