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जोधपुर में कला व संस्कृति को नया आयाम देने के लिए एक मासिक हिंदी पत्रिका की शरुआत, जो युवाओं को साथ लेकर कुछ नया रचने के प्रयास में एक छोटा कदम होगा. हम सभी दोस्तों का ये छोटा-सा प्रयास, आप सब लोगों से मिलकर ही पूरा होगा. क्योंकि कला जन का माध्यम हैं ना कि किसी व्यक्ति विशेष का कोई अंश. अधिक जानकारी के लिए हमें मेल से भी संपर्क किया जा सकता है. aanakmagazine@gmail.com

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Wednesday 17 December 2014
क्या किसी कलपुर्जे का बदलना उसके वास्तविक संरचना को पुनः लौटा सकता है? क्या हम फिर से वही हो जाते है जो हम पहले थे? किसी अबूझ पहेली के समान है इन प्रश्नों की पड़ताल करना. फिर भी शिप ऑफ थीसियसआपको खुला निमंत्रण दे रही है कि आप इन जैसे अनगिनत प्रश्नों के पड़ताल में अपना सिर खपाएं. हर पूर्ण में कही-न-कही अपूर्ण छिपा है और हर अपूर्ण में पूर्ण होने की ललक रहती है. यहाँ पर कोई एक कहानी ना होकर एक मूल विचार है जो तीन छोटी-छोटी कहानियों में चलता हुआ अपनी परिणिति तक पहुँचता हैं.
पहली कहानीः मन की ऑंखे एक अजीब सी विजुअल पावर आपके अंदर भर देती है. जो शायद वास्तविक ऑंख भी न दे पाए. कान से सुनना और अपने कैमरे के माध्यम से वो सब लेना जो आपके सामने घटित हो रहा है. आपने जो खींचा उसका एक फॉर्म तो नेगेटिव से पोजिटिव में तब्दील हो जाना है. वही इसका दूसरा फॉर्म अपने हाथो की उँगलियों द्वारा फोटो को ऊपर से नीचे तक परखना के कही कोई कमी तो नहीं रह गई. सारे संशय मिलकर किसी कला के निर्माण में एक सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं. आपने जो तस्वीर ली, दर्शकों की पारखी नजर उसका आस्वादन किस रूप में करेगी यह आपको पता नहीं है. आपको तो बस! अपने काम में रत रहना पता है. मन के किसी कोने में अपने जीवन की सारी अनुभूति व स्पंदन किसी दृश्याभास के समान आलिया के जीवन में विद्यमान है और इन सब का कोलज उसके जीवन में इस कदर मौजू है की देख न पाने का गम भी बहुत छोटा मालूम पड़ता है. लेकिन यही कोलाज उसे दिखाई देने पर उसके जीवन में एक बड़ा हॉल्ट साबित होता है. वह अपने आपको इस अनजान मैले में खोई हुई सी पाती हैं. उसे अपने बॉयफ्रेंड और अपने बीच एक स्पेस महसूस होता है. जिस आलिया की फोटोग्राफी की तारीफ आर्ट गैलेरी आने वाले लोग करते है अब उसमे कोई स्पार्क नहीं है और वो अपने अस्तित्व की खोज के लिए सुदुर पहाड़ो का सफर तय करती है. वो एक पुल पर बैठी है कैमरे का शटर कवर उसके हाथ से फिसलता है और वाइड एंगल में हमें दूर तक पहाड़ो से घिरे एक विशाल दृश्य में उस पुर्जे की तलाश करने की बात कही जा रही है जो फिर से वही अनुभूति प्रदान करा पाए.
दूसरी कहानीः जब तक साँस हैं मुझे अपनी खोज में चलते जाना है. इस श्वेताम्बर को लौकिक संसार के आगे क्या है उसकी गुढ़ चर्चा में बड़ा मजा आता है. साथ-ही-साथ मैत्रेय जानवरों पर हो रहे प्रयोग के खि़लाफ़ एक मुहीम भी चला रहा है. शोध के लिए जिस निर्दय पूर्ण व्यवहार से उन्हें उपयोग किया जाता है, वह बिलकुल अनैतिक है उसकी नजर मै. इन्सान का जीवन अगर अमूल्य है और जिसकी रक्षा के लिए जानवरों के अंग अलग-अलग ड्रग्स को बनाने मे काम आते हैं. फिर उस बैजुबान की क्या गलती है जो बोल नहीं सकता और अपने हनन का खेल देख रहा है. अचानक उसको एक दिन पेट में जोर को दर्द महसूस होता है. कुछ समय बाद पता चलता हैं कि उसका लीवर बढ़ रहा है. डॉक्टर उसे दवा खाने की सलाह देता है जिसे वो मना कर देता है. क्योंकि वो औरों की तरह संवेदना हिन् होकर उन ड्रग्स का सेवन नहीं कर सकता. अपनी यात्रा-प्रवास के दौरान उसकी हालत निरंतर खराब होती रहती है. एक रोज पीड़ा सहने की क्षमता जबाब दे देती है और वो अपने इलाज के लिए तैयार हो जाता है. यहाँ पर फिर से कुछ प्रश्न खड़े हो जाते है. मसलन यह जगत मिथ्या है और हमारी असली यात्रा हमारे मरने के बाद शुरू होती है. इस तरह की अवधारणा रखने वाला एक जैन साधु अचानक भय से ग्रसत क्यो हुआ? कही-न-कही माया का आवरण अवचेतन मन में अपनी पकड़ छोड़ नहीं पाया. कोई काम हम अगर हम दबाब में करते है तो फिर आगे चलकर दमन की वृतिया हम पर भारी पड़ जाती है. ऐसा कहा जाता है कि देह का साथ छुटने पर भी हम कॉसमॉस में विचरण करते रहते है. निर्विकल्प समाधि की अवस्था में पहुँचना इतना आसान नहीं हैं. चित्त की उच्चतम अवस्था को छुना हर मनुष्य के लिए इतना आसान काज नहीं है.
तीसरी कहानीः एक संवेदना शून्य व्यक्ति जो हर वस्तु केवल अपने फायदे और नुकसान के लिए ही चुनता है. कैसे एक छोटा सी घटना उसके जीवन की दिशा मोड़ देती है. नवीन अपनी नानी के साथ मुम्बई के टाउन साइड वाले इलाके मे रहता है. कोलाबा से दादर तक के एरिया को मुम्बईया बोलचाल में टाउन साइड कहा जाता है. उसके किडनी के ऑपरेशन के बाद उसकी आँखो के सामने कुछ ऐसा घटनाक्रम होता है कि उसे यकीन नहीं होता है कि किसी ब्रेन डेड व्यक्ति की किडनी उसे लगाई गई है. वो अस्पताल के कोरीडोर में एक परिवार का विलाप सुनता है. कोई शंकर नाम का आदमी जिसका अपेंडिक्स का ऑपरेशन होना है उसकी किडनी भी गायब है. खूब सारे सवाल दिमाग में दौड़ते है. उसकी तलाश अपने डोनर का पता लगाने व शकर के साथ हुए खिलवाड़ के पीछे की कहानी जानने की शुरू होती है.  
अपनी नानी और अपने दरम्यान हर मुद्दे पर मतभेद पाता है. फिल्म में दोनों के बीच कोई बात की चर्चा होते हुए नवीन के मुंह से निकल पढ़ता है कोई कंडोम से बदलाव थोड़ी ही आता है जिसका प्रचार आप एक समय घूम-घूम कर करती थी. इस बात का सीधा सम्बन्ध कहानी से तो नहीं है लेकिन नवीन की नानी शायद आपातकाल के दौरान संजय गाँधी द्वारा चलाई जा रही परिवार नियोजन की किसी मुहीम का हिस्सा रही हो. कई सारे एनजीओ अंग प्रत्यारोपण के गौरख धंदे में लेगे हुए है. लेकिन नवीन की सारी कोशिश बेकार ही जाती है. उसे हतास देखकर नानी कहती है, ‘इतना ही होता है.आज वो नानी के सामने मौन है कुछ समझ नहीं आ रहा है क्या कहे. जिस दिन नवीन को नई किडनी लगाई गई उस दिन एक ही आदमी के आठ अंग अलग-अलग लोगों को लगाए गए. फिल्म तो वहाँ खत्म हो जाती है जहाँ उस मृत व्यक्ति द्वारा बनाया एक विडियो दिखाया जाता. जिसका शौक अलग-अलग गुफाओं में जाकर वहाँ मौजूद रिक्तता को कैद करना था. अपने शरीर में लगे नए अंग के साथ आलिया, मैत्रेय व नवीन यह विडियो देख रहे है. फिल्म के निर्देशक आनंद गाँधीकिसी प्रकार के रिसोल्व के मुड में नहीं है. जिस अवधारणा को उन्होंने पकड़ा है उसको दिमाग मे रखते हुए उनसे सुखद अंत की अपेक्षा रखना बेमानी ही होगा. आनंद गाँधीका रुझान शुरू से ही निज की खोज का ही रहा है और दर्शन उनका प्रिय विषय है. इससे पहने जो दो शोर्ट फिल्म उन्होंने बनाई है उनका आधार भी उन प्रश्नों की पड़ताल करना ही है हमारा इस यात्रा का मकसद क्या है? 
                                                                                                 अनिमेष जोशी

Wednesday 3 December 2014


                 मनीषा,‘शिगाफ़’ नामक तुम्हारे उपन्यास को पढ़ा और महसूस किया कि शब्दों की जादुई अनुभूति से अब तक क्यों कर वंचित रही! ‘कवरपेज़’ ही बहुत अपिल कर रहा था.जब किताब  खोली और जाना कि ये उन्नीस वर्षीया कनुप्रिया की कलाकृति है तो और भी अद्भुत लगा.तुमने अपने उपन्यास में अमिता के शब्दों में लिखा है “यही मेरी आदत है. जहाँ नहीं हूँ, वहाँ को, जहाँ हूँ, वहाँ याद करना. ”किन्तु तुम्हारी लेखनी में वो ताकत है कि पाठक बेशुध होकर तुम्हारे और तुम्हारे ही शब्दों में  खोया होता है. विदेशी, देशी और प्रांतीय भाषाओं का जो ज्ञान और नियन्त्रण है तुम्हारा वह अप्रतिम है. स्पेन के ‘सेन्सबेस्टियन’ शहर को या कि स्पेन की जीवन शैली को पाठक पूर्ण रूप से जीता हुआ  आगे बढ़ता है. इतना सजीव वर्णन है कि लगता है हम स्पेन की गलियों ही में घूम रहे हैं और साधारणीकरण इस प्रकार हो जाता है कि देश की याद का ‘नॉस्टेल्जिक’ एहसास भी सांसों में घुल-घुल जाता है.
कंप्यूटर का आधुनिक प्रयोग अति-सराहनीय है, मनीषा. तुम्हारे द्वारा अमिता का अपने ‘ब्लॉग’ पर लिखना और तारीख दर तारीख ‘ब्लॉग्स’ पर प्रतिक्रियाओं का मिलते रहना रोमांचकारी है. लगता है साहित्य को वैश्विकरण का नया जामा पहिनाया है तुमने. ’बर्बरयुग’ की और मानव जाति की वापसी, कितना बड़ा सत्य है. ऐसे कितने ही सत्य तुमने उधेड़े हैं, मनीषा. विस्थापन का दर्द सार्वभौमिक है. दर्द जो पूर्ण सत्य है ‘एब्सल्यूट टूर्थ.’ अपनी खुली जड़े लिये भटकना और कहीं न जम पाना, जहाँ से उखड़े वहाँ भी नहीं और जहाँ जमना चाहा वहाँ भी नहीँ. विस्थापन महज़ एक त्रासदी बन कर रह गया है. जब देशों का विभाजन होता है तब यह दर्द अपनी पीठ पर ढोकर एक पीढ़ी बुरी तरह टूटती है. किन्तु बिना विभाजन के जातिवाद, प्रांतवाद जैसे स्वार्थ या कि मानव के तुच्छ स्वार्थ अपनी ज़मीन से जिनको उखाड़ते हैं उनका दर्द ह्रदय विदारक हो जाता है, शब्द हीन चित्कार. तुम्हारी कलम से जो उपमाएँ पेजों पर उतरी हैं वो इतनी सटीक और सार्थक हैं कि उनकी बानगी में शब्दों का अभाव-सा लगता है. उनके अनूठेपन से ऐसा लगता है कि साहित्य ने अभी-अभी इन उपनाओं को छूआ है. कश्मीर के सौंदर्य का एक लंबा इतिहास  रहा है और आतकंवाद ने भी दुर्दिनों का एक विशाल खज़ाना स्थापित कर लिया है. अपने सौंदर्य के कारण धरा का स्वर्ग कहलाया जाने वाला कश्मीर, भारत का शीर्ष , इतिहास का गौरव. इस कश्मीर को न जाने कितने ही इतिहासकारों ने और साहित्यकारों ने अपने शब्दों में पिरोया है. किन्तु सच मानो मनीषा तुम्हारे द्वारा वर्णित कश्मीर का सत्य-कश्मीर के सौंदर्य से, कश्मीर के आतंकवाद से, कश्मीरी हिंदुओं के दर्द व पलायन से, जो साक्षात्कार कराता है शायद सम्बेत तरीके से तुमसे पहले किसी ने नहीं लिखा. तुम्हारी जन्मस्थली, जोधपुर में बैठे हुए मैं अपने तलवों के नीचे, ज़मीन की सतह के नीचे बिछी बारूद महसूस कर सकती हूँ. महसूस कर रही हूँ युवकों रहित गाँव के गाँव, जहाँ बूढ़ी आँखें आज़ भी अपने लाडलों के लौटने की राह तकती हैं. हरेक ‘चाँद के टुकड़े से चेहरे’ पर  ग्रहण सी डर की स्याही पुती देख सकती हूँ. महसूसती हूँ क्षत-विक्षत शरीर जो चलती-फिरती लाश का बोध कराते हैं...मौत से भी भयानक. आँखों में पलते सलोने सपनों को टूट-टूट कर बिखरते देखा है तुम्हारे शब्दों में और उनकी बिखरी किरचों से लहु-लुहान होते मानव को भी. विरोधाभास की पराकाष्ठा एक ओर बूटे-बूटे पर बिखरा सौदर्य और घृणित हिंसा के हाहाकार से सहमा मानव...झुलसे शहर ...स्तब्ध वृक्ष और ठिठकी हुई प्रकृति को तुम्हारी लेखनी ने जीवंत उकेरा है. उकेरा है तुमने अपने ही घरों में अपने वजूद को बचाने के लिए ढूंढते कोने और छितर-बितर हो जाने के भय  से स्वयं को बचाने के लिये जूझते शरीर को. संसार के नक्शे में एक प्रांत ऐसा भी है जो लहु-लुहान हुआ पड़ा है और उसकी मरहम पट्टी इसलिये नहीं की जायेगी क्योंकि विश्व राजनीति में अभी वहाँ बहुत कुछ होना बाकी है. प्रेम एक शास्वत सत्य है. यह किसी जाति, क्षेत्र, रूप-रंग, दौलत या किसी एक दिल की नहीं वरन हरेक दिल की मिल्कियत है. प्रेम की तीव्रता, उसके खंडन की तीव्र वेदना, प्रेम से अभिशप्त मन, कट्टर पंथियों द्वारा प्रेमियों को सज़ाएँ, इन सब संवेगों का जीवंत वर्णन है मनीषा तुम्हारे शब्दों में. कहीं तुम्हारे शब्द वादीयों में गुम हो जाते हैं तो कभी सुबकियों में घिरे (खो जाते हैं) होते हैं. कभी कंपा-कंपा देते हैं तो कभी दिलों में दहशत बैठा देते हैं. इन सब उद्गगारों का वर्णन अभी-अभी पास से गुज़रा सा लगता है. समस्त संवेदनाओं की अनुगूँज पाठक की साँसों में सुनाई देती है. जीवंत नारी त्रासदी के वर्णन के बाद भी तुम्हारी नायिका अमिता का ‘इयान बौंड’ से ‘जमान’ तक का सफ़र कई मोड़ लेता है और इस सफ़र में कई वसीम और यास्मीन साथ-साथ चलते है.-------      
                                                    कुक्कू शर्मा
Tuesday 25 November 2014


Sunday 9 November 2014
 बलूत के पेड़ पर बैठकर गाया जा रहा एक गीत किसी उपादेय के लायक है या नहीं? एक तलाश उस बुलबुल की जारी है जो इसके द्वारा गया जा रहा गीत का सही मानदेय उसे दे सके. बुलबुल रोज़ अपने कंठ से जो अनुराग बरसा रही है कही वो उसके जीवन की भोगी हुई वेदना का सूचक तो नहीं जो अपनी करुणा से औरों को मुक्त रखना चाहता है. ऑस्कर वाइल्ड़ की कहानी ‘नाईटएंगल एंड दी रोज़’ आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उसके रचना काल से समय थी. जीवन इतना तेजी से भाग रहा है. छोटी-छोटी वस्तुओं की अहमियत लगभग खत्म होने के कगार पर आ खड़ी हुई है. हर बात के केंद्र मे केवल हमारा उपभोक्ता वादी रवैया ही हावी रहता है. इसी रवैये के चलते हमने अपनी ठहर कर ओब्सज़र करने की परख को खो दिया है. इस परख का दूर होना ही हमारे बहुत से किये जा रहे कार्यो पर ना चाहते हुए भी दिख रहा है.
 बिना किसी स्वार्थ के उस सच्चे प्रेमी की तलाश मे अपने आप को खो देना. अपनी बुद्धिमता को सिद्ध करने के लिए वह फिलोसोफी भी कमतर साबित हुई जो एक अदद लाल गुलाब भी पास में नहीं होने पर अपनी सार्थकता को किसी रूप में सिद्ध न करा पाई. लड़के के ज्ञान व कौशल को तरजीह न देते हुए लड़की की चाह उस लाल गुलाब को पाने की है जो केवल कुछ देर के लिए आकर्षण का केंद्र बन सकता है. रोज़-रोज़ हम न जाने क्या-क्या खरीदते रहते है उस कुछ क्षण वाले मॉनिटर के लिए जो हमें वॉच करेगा. हमारा आंतरिक मन रह-रह कर उस मॉनिटर को पोषित करता रहता है.
 राजकुमार ने अपने यहाँ जलसे का आयोजन किया. लड़की लाल गुलाब के मिलने पर ही लड़के के साथ नाचना पसंद करेगी अन्यथा उसको पार्टी में अकेले ही बैठे रहना पड़ेगा. यह बात सुनकर बुलबुल बड़ी विचलित है, उसे लड़के का प्यार सच्चा लगता है लेकिन अपने आस-पास एक भी लाल गुलाब नहीं होने की स्थिति में लड़के से ज्यादा चिंता में वो नज़र आ रही है. एक दिन बाद पार्टी है इतने कम समय में वो लाल गुलाब कहा से लाए यह बात उसे अंदर तक परेशान कर रही है. पता नहीं उस  बुलबुल को उस लड़के में क्या नज़र आ गया जिसकी वजह से वो प्यारे गीत को भी व्यर्थ मान बैठी है और रह-रह कर यह बात सोच रही हैं कि गीत की उपयोगिता है भी या नहीं?
 बुलबुल, गुलाब के तीन-तीन बिरवे के पास जाकर उनसे एक अदद लाला गुलाब की मांग करना. तीनों ही बिरवे के पास लाल गुलाब तो क्या कोई भी गुलाब का अभाव होना. सबके अपने-अपने मंतव्य को सुनकर उसका चेहरा किसी अलसाई शाम में किसी गलत तान से छेड़ने के समान लगना. एक बिरवे का सुझाव उसको सकते में डालते हुए भी सोचने पर मजबूर कर रहा है. इस सुझाव में उसकी ही जान को खतरा है, फिर भी वो इसके लिए तैयार है. इस बार सर्द ऋतु में बिरवा पूरा सुखा हुआ है और इस पूरे साल एक भी फूल की गुंजाइश नहीं है, जहां एक भी फूल संभव नहीं है, वहाँ लाल गुलाब की सम्भावना तो एक प्रकार की अतिशयोक्ति ही साबित होगी. बिरवा केवल इतना चाहता हैं कि आज की रात चाँद के धवल प्रकाश में तुम अपना सबसे प्रिय गीत गाते-गाते मेरे काँटों को अपने ह्रदय का स्पर्श करवा सकती हो तो शायद इस मौसम में भी फुनगी से लाल गुलाब की उम्मीद रखी जा सकती हैं. किसी के प्रेम के लिए इस तरह अपना सब कुछ सौप देना कोई आसान काज़ नहीं है. कोई दरवेश ही इस तरह अपने आप को होम करना चाहेगा. बुलबुल की हट धर्मिता भी अपने को खो कर उस जमीन को पाने की लगती है जो उसके गीत का सही मूल्यांकन दे सके. इसकी बड़ी कीमत भी वह अपना आखरी गीत गाकर देना चाहती है. क्योंकि उसके बाद तो उसके ह्रदय से निकले रक्त से सीचा लाला गुलाब ही हमारे सामने होगा.
 लड़के के दिमाग में भी कला व कलाकार के प्रति जो संदेह होता है. उसकी धारणा के अनुरूप अपने गीत के पीछे भी बुलबुल का कोई स्वार्थ नज़र आता है. लेकिन अपनी कमरे की खिड़की के आगे लगे पौधे में जब वो लाल गुलाब देखता है तो उसकी सारी धारणाओं पर उसे सर्मिंदगी महसूस होती हैं. इसे देखकर वो इतना खुश होता है कि जैसे उसने जीवन का सबसे अनमोल रत्न पा लिया हो, जिसकी फोरी कल्पना शब्दों में करना मुश्किल हैं. उसके दिए लाल गुलाब को लड़की लेने से मना कर देती है, साथ-ही-साथ यह तर्क भी देती है कि चेम्बरलीन के भतीजे ने जो उसे जवाहरात दिए है जिसका मोल इस लाल गुलाब से कही ज्यादा है. मै पार्टी में उसे ही पहनकर जाना चाहूँगी. यह सुनते ही उसे पास ही एक नाली में उस लाल गुलाब को फेक दिया जो वहा से गुजर रही ठेला गाड़ी के निचे आकर पूरा बिखर गया. क्या आज के सन्दर्भ में बिना किसी दिखावे के प्रेम संभव है? उसने यहीं महसूस किया उसके लिए आपको उन सारी काल्पनिक बातों का सहारा लेना पड़े जिनका होना मोजूदा समय में संभव नहीं हो. जहां पर आपको प्रैक्टिकल होना है उस जगह मेरे जैसे लोगों का प्रेम करना या प्रेम में होना मुश्किल है.
 ऑस्कर वाइल्ड वैसे अपने धार-धार व्यग्य के लिए जाने जाते थे. जिसे ‘विट’ भी कहा जाता है. उसके लिखे का अमेरिका के एलिट क्लास में उपहास व चर्चा का केंद्र दोनों रहता था. लेकिन उनका लिखा एक उपन्यास जो काफ़ी डार्क किसम का था, ‘पिक्चर ऑफ डोरियन ग्रे’ अपनी अद्भत कथा वस्तु के कारण आज भी आपके आमने कई प्रशन लिए खड़ा है. जिसमें लायक खुद की  पंटिंग को देखकर बड़ा परेशान रहता है. वो कोई भी अपराध करता तो पंटिंग उसके दिमाग में चल रहे भावों के अनुरूप अपने आप ही बदलती जाती.
 बुलबुल का जीवन उस रिक्त के समान है जहा आप अपने हिसाब से कुछ जोड़ कर बहुत कुछ पा सकते है. बुलबुल तो केवल सेतु होकर हर प्रमी को उसकी सही परिणति तक पहुंचाना चाहती थी, लेकिन उसके लिए किसी का प्रेम भी उस स्लेट के समान होना चाहिए जहाँ से पहला हर्फ़ लिखा जाए न की किसी और स्पंदन की गंध उसमे समाई हो. जैसा के खुसरों कहते भी है-
“खुसरों दरिया प्रेम का, उलटी वाकी धार

जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार.’
                                                                                                          अनिमेष जोशी
                                                           
Friday 17 October 2014


कोरस रेपर्टरी थिएटर इम्फाल के संस्थापक, पूर्वाचंल के रंग- पुरोधा, रतन थियम हाल ही में राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के निमंत्रण पर जोधपुर  पधारे थे. अपने प्रवास के दौरन, स्थानीय टाउन हॉल में उन्होंने न केवल अपनी विशिष्ट शैली में मणिपुरी भाषा(मैई तेई) की तीन अविस्मरणीय नाट्य प्रस्तुतियाँ दी; अपितु संभाग के विभिन्न शहरों से जोधपुर में जुटे रंगप्रमियों के साथ गहन वार्ता एवं संवाद भी किए. इन तीन दिनों में उन्होंने अनेक विषयों पर विचार सांझा किए और एकाधिक सत्रों में उनसे कुछ सवाल-ज़बाब हुए. एक असाधारण प्रतिभा के धनी रंगशिल्पी को जान लेने के लिए यद्यपि यह अवसर पर्याप्त नहीं था, परन्तु उनकी सोच और सर्जनात्मक कौशल की एक बानगी के रूप में यह यात्रा हमेशा याद रहेगी. उनके जोधपुर आगमन से कई दिन पूर्व से ही शहर में सरगर्मी फ़ैली हुई थी. राजस्थान के लब्ध प्रतिष्ठित रंगकर्मी, आलोचक एवं मीडियाकर्मी थियम के नाटकों को लेकर बेहद उत्सुक थे. ट्रकभर कर साथ लाए उपकरण और मंच सामग्री को देखकर, और कड़े अनुशासन में पूर्वाभ्यास करते रंग-मंडल सदस्यों से मिलकर, तरह-तरह की बातें हो रही थी. और यह कौतूहल अप्रत्याशित भी न था. रतन थियम देश ही नहीं विदेशों में भी सम्मान से लिए जाना वाला नाम है और उन्हें विश्व केशीर्षस्थ निर्देशकों में गिना जाता है. उनकी सृजन यात्रा इतनी विस्तृत और गौरवशाली है कि दर्शक दीर्घा में ऐसा कोई नहीं होगा जिसने उनके बारे में पढ़ा-सुना न हो. परन्तु वास्तविक नाट्यानुभव अनुमान से कई गुना बेहतर और निराला था. समारोह की प्रथम प्रस्तुति राजा (The King of Dark Chamber) गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर के नाट्यालेख पर आधारित अद्मुत नाट्यानुभूति साबित हुई. नाटक देख कर निकले अधिकांश दर्शक आत्मविस्मृति r के ऐसे भँवर में डूबते-उतरते दिखाई दिए जिसका वर्णन करना कठिन है, यह देखना रुचिकर लगा. राजा की प्रस्तुति के अगले दिन थियम ने अपने नाट्य सृजन पर विचार करते हुए कहा कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक होने से पूर्व उन्होंने अपने पिता से शास्त्रीय संगीत एवं मणिपुरी नृत्य की विधिवत दीक्षा प्राप्त की थी. साथ ही वे चित्रकला से भी प्रभावित रहे हैं इसी के चलते निर्दशन को ऐसे निरखते हैं जिस तरह पेंटर अपने कैनवास को. दीगर बातों के साथ थियम ने इस बात को स्वीकार किया कि मणिपुर में फ़ैली अराजकता, गरीबी और बेरोज़गारी उनकी सृजन सम्वेदना को इस कदर पभावित कर चुकी है कि वे, जाने-अनजाने अमन-चैन और शांति के समर्थक और हिंसा-विरोधी विचारधारा के पैरोकार कहलाने लगे हैं. शायद इसलिए उनके नाटकों में या तो युद्ध और विध्वंस के खिलाफ़ रुख दिखाई देता है या राजशाही को सदाचरण की नसीहत सुनाई देती है और या फिर मणिपुर की भाषा और संस्कृति को बचाए रखने की पुकार होती है.
रंगकर्मियों के साथ हुए उनके संवाद में से कुछ प्रतिनिधि सवाल और उनके ज़बाब संक्षेप में यहाँ दिये जा  रहे है.
सवाल: कोई निर्देशक अपने नाटक के लिए स्क्रिप्ट का चुनाव किस आधार पर करता है?
जबाब: हर निर्देशक अपनी सोच और सम्वेदना के आधार पर विषय अथवा आलेख चुनता है. दूसरों के बारे में दावे से कहना ठीक नहीं होगा पर मैं अपनी खुशी और संतोष के लिए नाटक करता हूँ. वे ‘शबरी के बेर’ का हवाला देते हुए कहते हैं कि जो कृति स्वयं उन्हें परिपक्व और रसीली नहीं लगती, वे उसे दर्शकों को नहीं दिखाते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि ऐसी कई स्क्रिप्ट और बीज नाटक पर पूर्व में वे कार्य कर चुके हैं और महीनों काम करने  के बाद वे इस नतीजे पर पहुँचे कि उस प्रोजेक्ट का परित्याग करना ही श्रेयस्कर होगा.
सवाल: यथार्थवाद (Realism) और बाकी फॉर्म में फर्क कैसे किया जाए? निर्देशक यह कैसे जाने कि कौन सा फॉर्म किस स्क्रिप्ट के लिए उचित रहेगा?
जबाब: इस बात का निर्णय या तो निर्देशक के रुझान पर निर्भर करता है, और या फिर स्क्रिप्ट में से ही इसे तलाशना पड़ता है. थियम ने कहा की नाट्य विधा की औपचारिक शिक्षा के तहत संसार भर में यह सिखाया जाता है कि फॉर्म कितने प्रकार के हो सकते हैं जैसे यथार्थवाद, प्रकृतवाद, प्रतीकवाद, प्रभाववाद, असंगत नाट्य परम्परा आदि. एक युवा निर्देशक के लिए यद्यपि यह जाननाआवश्यक होता है कि यह वर्गीकरण कैसे हुआ और विश्व-नाट्य परम्परा में यह फॉर्म कैसे पहचाने गए, परन्तु कभी किसी युवा सृजनकर्ता को सायास किसी शैली का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए. स्वयं की सृजन शैली पर चर्चा करते हुए थियम ने माना कि उन पर ‘साल्वाडोर डाली’  की पेंटिंग्स का गहरा प्रभाव रहा है. अतः उनके सृजन में surrealism (अतियथार्थवाद) का प्रभाव दिखता है.
सवाल: आपके नाटक में कुछ स्थान पर ऐसा क्यों प्रतीत होता है कि अभिनेता के चेहरे पर पर्याप्त प्रकाश नहीं है, आप मंचमुखी लाइट्स (F.O.H.) का उपयोग कम से कम क्यों करते हैं?
जबाब: मंच का आलोकन नाटक के संकेतार्थ उभारने में गहरी भूमिका निभाता है. आप को यह समझना होगा कि हर निर्देशक ऐसा प्रयत्न करता है कि उसे जो दिखाना है और जितना दिखाना है, उतना ही दर्शक को दिखाई दे. मसलन हमारा नाटक ‘राजा’ एक ऐसा नाटक है जो मनुष्य के मन के अंधेरे का चित्रण करता है. टैगोर के नाटक की यह प्रस्तुति इस भौतिकवादी युग की चकाचौंध को बाह्य रोशनी के रूप में और मानव मन की असीमित इच्छाओं को आंतरिक अंधकार के रूप में परिभाषित करती है. इस प्रकार के सांकेतिक गूढ़ार्थ अभिव्यक्त करने हेतु खास तरह की प्रकाश व्यवस्था की आवश्यकता थी. इस परिकल्पना को बड़ी सावधानी से और लंबे विचार विमर्श के बाद तैयार किया गया है. इसमें त्रुटि या दुर्घटना की सम्भावना की खोज करना अनुचित होगा.
सवाल: आपके नाटक इतने अधिक खर्चीले और श्रमसाध्य होते हैं कि औसत रंगकर्मी इस तरह के सृजन के बारे में सोच भी नहीं सकता. क्या एक सीमित संसाधनों वाला साधारण रंगकर्मी इस तरह के नाटक कभी कर पाएगा?
जबाब: क्यों नहीं? यदि कोई शख्स ठान ही ले और समझोता न करे तो वह किसी भी सीमा में बंध कर कार्य करने को विवश नहीं है. स्वयं अपना उदाहरण देते हुए थियम ने कहा कि उन्हें  अपना प्रेक्षाग्रह बनाने और रंग-मण्डल को स्थापित करने में पच्चीस साल से भी अधिक समय लगा. इस दौरन उन्हें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा और उनकी टीम ने बहुत कठिन समय  देखा है. बोलते-बोलते वे पुरानी यादों में खो गए और रुंधे गले से बताया कि संघर्ष के दिनों में  उनके पास पैसे नहीं थे. इसलिए वस्त्र विन्यास से लेकर मंच सामग्री तक के लिए किसी पेशेवर  विशेषज्ञ की सेवाएँ नहीं ले पाए. धीरे-धीरे, अथक प्रयासों से सब कार्य स्वयं करने की आदत डाल ली. आज़ उनकी टीम मंचन के दौरन काम आने वाली हर सामग्री स्वयं तैयार करती है. अपनी  कार्यस्थली मणिपुर को लेकर भावुक होते हुए थियम ने कहा, “हिंसा और विद्रोह की आग में  झुलस रहा पूर्वोत्तर भारत, और वहाँ के मुट्ठी भर समर्पित लोग यदि जीवन मूल्यों के प्रति ईमानदार  रहते हुए सृजनशील रह सकते हैं, तो कोई भी रह सकता है.
समारोह का दूसरा नाटक इब्सन लिखित ‘व्हैन वी डैड अवेकन’ (When We Dead Awaken) पर आधारित एक मणिपुरी रूपान्तरण ‘अशिबागी एझेई’ के नाम से प्रस्तुत किया गया और दर्शकों पर गहरी छाप छोड़ गया. इब्सन का यह नाटक एक बहुपक्षीय रूपक के तौर पर विख्यात है जो गृहस्थ जीवन की उलझन और सृजन वेदना के द्वंद्व का समन्वेषण करता है. थियम के अनुसार वह एक ऐसा नाटक तैयार करना चाहते थे जिसके माध्यम से वह इस महान कृति की सूक्ष्म बातों को मणिपुर के लोगों से सांझा कर सकें. वहीं उनकी इच्छा यह थी कि वे मणिपुरी मुहावरे की सही व्याख्या करे  और उनका सृजन संसार भर में  स्वीकार्य हो. बकौल थियम साहब, “इसी सोच के तहत अशिबागी एझेई की बुनावट में इब्सन के मूल नाटक के नाट्यलेख को अक्षरशः अनुपालन करने की बजाय, मैने उनकी कथ्यपरक विषयवस्तु को प्रस्तुत करने पर अधिक बल दिया.”
इस मंचन के दूसरे दिन संवाद की दूसरी कड़ी में, रंगकर्मियों ने उनसे कुछ और सवाल पूछे. उनमें से कुछ प्रस्तुत है.
सवाल: नाटक के केन्द्रीय किरदार शक्तम लाक्पा (इब्सन के आर्नोल्ड रयूबिक) ने पारपरिक मणिपुरी परिधान के ऊपर एक आधुनिक विदेशी जैकेट (कोट) पहना है. क्या इसमें कोई गूढ़ संकेतार्थ  छिपा है?
जबाब: शक्तम लाक्पा एक मूर्तिकार हैं और मैने पूर्वांचल के तमाम कलाकारों और शिल्पियों को इस तरह के कपड़ों में देखा है. मेरे एक रिश्तेदार जो स्वयं एक मूर्तिकार हैं, वे (भी) इस तरह का परिधान पसंद करते है. इसलिए मैंने इस किरदार को इस तरह का वस्त्र-विन्यास देने का निश्चय किया.
सवाल: नाटक के चरमबिन्दु पर  मूल लेखक ने ऊँचे पहाड़ पर हिमस्खलन का उल्लेख किया है जिसमें आर्नोल्ड रयूबिक और उनकी प्रेरणा, आइरिन दफ्न हो जाते है. आपने इस प्रस्तुति में शक्तम लाक्पा  और शर्तम के साथ ऐसा घटित होने क्यों नहीं दिया?
जबाब: जैसा मैं अक्सर कहता हूँ, हम नाटक के मूल आलेख का ‘Thematic content’ लेकर उसे अपने परिवेश और संवेदनाओं में उतारने का प्रयास करते हैं. इस नाटक में पश्चिमी सोच के मुताबिक विनाश का होना तर्क संगत हो सकता है पर हमारी संस्कृति के अनुसार शक्तम और उसकी प्रेरणा दोनों का मिलना और शीर्ष पर स्थापित हो जाना उचित लगा. इस कारण अंत बदल कर प्रस्तुत  किया गया.
सवाल: किसी प्रस्तुति का Thematic Content मूल आलेख के प्रति कितना ईमानदार/सत्यनिष्ठ हो सकता है? यद्यपि इसका उत्तर कठिन है पर हम युवा रंगकर्मियों को यह समझ नहीं आता कि  स्क्रिप्ट का कितना अंश रखना है और कौन सा नहीं?
जबाब: यह सवाल बहुत अच्छा है. आपने ठीक कहा कि इस सवाल का जबाब तलाशना कठिन है. मैं इसका जबाब इब्सन के इस नाटक को उदाहरण स्वरूप रखते हुए देना चाहता हूँ. इब्सन यथार्थवादी परंपरा के नाटककार मानें जाते हैं, पर अपने इस अंतिम नाटक When We Dead Awaken  में उन्होंने प्रतीकवाद और बिम्ब-वैविध्य का ऐसा तना-बाना बुना जो पूरी दुनिया में अपनी तरह का अनूठा था. इस नाटक की सृजन प्रक्रिया को याद करते हुए के यह नाटक उन्हें किस कदर पसंद है और इसे मंच पर लाना कितना चुनौतीपूर्ण रहा. भाषांतर की प्रक्रिया के दौरन उन्हें कई मर्तबा ऐसा लगा जैसे वह एक असाधारण प्रतिभा के धनी सृजनधर्मा के साथ लुका-छिपी खेल रहे हों. पर इस पूरी प्रक्रिया में कोई नियम, कोई पुस्तक या कोई व्यक्ति उन्हें यह नहीं बता  सका कि स्क्रिप्ट का कौनसा अंश उन्हें नहीं रखना है. पूरी विनम्रता और विनयशीलता से  थियम ने स्वीकारा के सहजवृत्ति  के लिए उन्हें जो उचित लगा उन्होने वही किया. शायद इब्सन ने एक बैचेन शिल्पी की सृजन यात्रा के माध्यम से हमें समझाना चाहा था, कि  हर सृजनशील व्यक्ति अपनी प्रेरणा की तलाश में कभी न खत्म होने वाली यात्रा पर अग्रसर है. यह एक ऐसी ज्ञान-पिपासा है जो एक वरदान भी है और एक श्राप भी .
रतन थियम के नाटकों का फलक बड़ा विशाल होता है. वे उनेक रंगों से सृजन करते हैं. जैसे कल्पनाशील मंचसज्जा, अनूठी प्रकाश व्यवस्था, लोक जीवन से अनुप्रेरित रंग बिरंगे परिधान, मनभावन कोरियोऑग्राफी, लोमहर्षक लड़ाई के दृश्य, आदि. इन तमाम अवयवों के निपुण संयोजन से किस तरह मूल पाठ के सूक्ष्म अर्थभेद से दर्शक का साक्षात्कार करवाया जा सकता है - यह जानना    यहाँ के रंगकर्मियों के लिए बेहद शिक्षाप्रद था.
                                                   विकास कपूर

Monday 22 September 2014


अनिमेष जोशी

यादो के सब्ज बाग की खुरचन हमेशा हमारे वर्तमान को परेशान करती है. हम जैसे-जैसे जीवन में आगे बढ़ते जाते हैं एकाएक उन सभी पलों के बारे में सोचना शुरू कर देते है जो हमारा हिस्सा होना चाहते थे. वर्तमान के प्रति एक प्रकार की खीझ हमें न चाहते हुए भी अपने भीतर पसरे मौन से उपजे एकांत की ओर ले जाता हैं; और धीरे-धीरे हम उन सारी स्मृतियाँ को अपने समीप पाकर वक्त को उसी जगह रोकने की चेष्टा कर बैठते है, जिनकी उहमियत रफ्तार में हम पकड़ ही न पाए. बहरहाल लंच बॉक्स फि़ल्म में खाने का डिब्बा महज डिब्बा न होकर उन सारी स्मृतियों को फिर से पकड़ने का माध्यम है ईलाके लिए जो  उसे कही-न-कही अपने आज में प्राप्त नहीं हो रहा हैं. साथ-ही-साथ यह एक तरह का वार्निंग सिग्नल है हमारे लिए जिसे हम समय रहते महसूस कर पाए तो अच्छा होगा.

हम अपने को  उस बाड़ तक सीमित नहीं रखता चाहते है जो हमारे लिए ही बनी है. दिन प्रतिदिन
Saturday 13 September 2014
 पद्मा मिश्रा
 
 
सुबह सुबह ओस से भींगी हरी घास पर चलना सुमि को बहुत अच्छा लगता है ,जैसे हरी निर्मल दूब पर मोतियों की की  छुअन -और उन पर धीरे धीरे पाँव रखकर चलना --बिलकुल किसी वनदेवी की तरह -सुमि को बहुत पसंद है ,- - यह छोटी सी बगिया ही मानो उसके सपनो का संसार है -कोने में लगाई गुल दाउदी -जूही व् रजनीगंधा को पनपते -अंकुरित होते न केवल महसूस किया है बल्कि जिया भी है -ठीक अपने बच्चों की तरह उनकी देख भाल भी की है ,जूही की कलियाँ टोकरे में भर कर उन्हें बार बार सूंघना और बच्चों की तरह खुश हो जाना भी सुमि को बेहद पसंद है -पर रजनीगंधा की कलियाँ न जाने क्यों अभी तक नहीं खिल पायीं ,- - वह रजनीगंधा की दीवानी है ,और उसे खिलते हुए देखना चाहती है --उसकी वेणियां बना अपने बालों को सजाना चाहती है ,पर कलियाँ हैं --क़ि उसकी भावनाओं से बिलकुल अनजान हैं ,उधर कोने में खड़ा हवा के झोंके से झूमता इतराता हरसिंगार भी उसे बहुत प्रिय है --जिसे उसने 'विवेक'नाम दिया है -ठीक उसके पति विवेक की
 
 तरह बिंदास -जिंदादिल -उनसे जब फूलों की बरसात होती तो वह अपना आँचल फैला ठीक उसके नीचे खड़ी हो जाती -ढेर सारे फूल ही फूल बिखर जाते -उसके आस पास रजनीगंधा के पौधों को उसने गुंजन,अंजन और