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Sunday 22 June 2014

                तन्मय सेठी


            ‘धारा एक सौ चवालीस’ किशोर सिन्हा द्वारा रचित नाटक है  जो लेखक के जीवन की एक घटना से प्रभावित है. नाम के अनुरूप ही यह एक शहर में धारा एक सौ चवालीस लगाने से उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों व जन समान्य के मनोभावों का सजीव चित्रण है. लेखक ने न केवल आम जनता की विवशता का उल्लेख किया है, बल्कि साथ ही सरकारी अफसरों व नौकरशाही की कठिनाइयों पर भी प्रकाश डाला है. लेखक ने नाटक में ना तो किसी को विवश दिखाया है और ना ही किसी को बहुत शक्तिशाली. सारा प्रसंग बहुत ही संतुलित लगता है और वास्तविकता का प्रभाव उत्पन्न करता है.

        कथा पक्ष पर यह रचना जितनी भरी-पूरी व समृद्ध है, उसी तरह मंचन में भी यह बहुत सजीव व जटील है. नाटक में कोई भी किरदार मुख्य नहीं है, पर अपनी गौण भूमिकाओं में सिमटकर भी हर पात्र अपनी एक छाप छोड़ता है. नाटक का मंचन किसी भी ना निर्देशक के लिए बड़ा ही चुनोतिपूर्ण हो सकता है. मूलतः नाटक तेराह अंकों में विभाजित है, जिसमें कहानी को पूर्णतः निभाने के लिए रिक्शा, बस से लेकर जेल व दंगल तक का मंचन किया जाना अत्यंत आवश्यक है. नाटक में लाइट व साउंड के विपुल उपयोग की संभावना है.  मानवीय दर्द, हिंसा, सन्नाटा और भीड़ आदि को उजागर करने में इनका उपयोग बहुत महत्वपूर्ण साबित हो सकता है.

       नाटक की बात करे तो इसका आगाज़ एक दंगल के दृश्य से होता है. जहाँ दो  अखाडों के नामी पहलवान कुश्ती में दो-दो हाथ आज़मा रहे है. चूंकि दोनो पहलवान अलग धर्म के है तो उनके समर्थक भी धर्म के आधार पर हिंदू और मुसलमान में विभाजित हो जाते है. कुश्ती के दोरान दर्शको में मची हलचल, लड़ाई का रुप धारण कर ले लेती है, जिसमें एक पहलवान को चाकू मार दिया जाता है. शीघ्र ही पुलिस भी मौकें पर पहुँच जाती है. तत्पश्चात लेखक ने दर्शाया कि किस प्रकार पुलिसकर्मी सारी भीड़ का मुकाबला करने का असफल प्रयास कर रहे है. वहीं एम्बुलेंस सरकारी अधिकारी के बच्चों को स्कूल छोड़ने गए होने के कारण समय पर नहीं पहुँच पाती है. पहलवान को भीड़ रिक्से पर ही अस्पताल ठेल के ले जाती है. अस्पताल;  डाक्टर, स्टाफ व मशीनरी के आभाव में बेबस है. अनेक प्रयासों के बाद भी वो पहलवान  बचा नहीं पाते है, और यहीं से आगाज़ होता है सम्प्रदायिक दंगो का.
     अगले दृश्य  में लेखक ने दिखाया है की इस घटना से शहर में क्या प्रभाव होता  है. जहाँ एक तरफ़ आम जन-जीवन थम जाता है, वहीं अफवाहों का नित नया दौर शुरु हो जाता है. हर कोई अपनी ख़बर को सनसनीखेज बनाने का प्रयास करता है. मनोरंजन व प्रतिस्पर्धा के खेल को मजहबी रंग देकर लोगों को परोसा जाता है.  स्थिति और विकट होती चली  जाती है और शहर में कर्फ़्यू लगाने की घोषणा कर दी जाती है. ‘धारा एक सौ चवालीस’  लागू होते ही ऐसा प्रतीत होता है जैसे सारा शहर सन्नाटे की गोंद में दुबक गया हो.
    अगले कुछ दृश्यों में लेखक ने शहर के हालातों को दर्शाया है. चप्पे-चप्पे पर पुलिस का कड़ा पहरा लगा दिया जाता है. दंगाईयों ने बाजार व दुकानों को लूट लिया है. बाज़ार बंद होने से जहाँ आम लोगों का सामान खरीदने में परेशनी होती है. वहीं दिहाड़ी कर जीवन बसर करने वाले मजदूर दाने-दाने के मोहताज़ हो जाते है. कर्फ़्यू में मिलने वाले चंद घंटे की रियायत में सारा बाजार मैले सा रोशन हो जाता है.  इस सब घटनाक्रम से लोगों के दिलों-दिमाग में एक कड़वाहट घर कर जाती है. जिन पड़ोसियों के साथ मिलकर ईद और दिवाली मनाई वो अब गैर मजहबी दुश्मन बन चले थे. पूरा शहर खोफ़ व आक्रोश के आवरण में छिप गया था. मानों धर्म और मजहब के आगे इंसानियत का कोई सरोकर ना हो. इसी दौरान सरकारी दस्ते घर-घर जाकर उनकी तलाशी लेते है. लेखक ने इसमें बखूबी दर्शाया कि किस प्रकार शहर के हालातों ने साधारण आदमी के जीवन को निचोड़ कर रख दिया है. न सिर्फ़ आम जन बल्कि कर्फ्यू जल्द से समापत हो जाए पर इसके आसार नहीं नज़र आते है.
       अगले दृश्य में दंगाईयों के मनोभावों का चित्रण किया है. लेखक ने नकाब का प्रयोग कर दोनों दलो को आमने-सामने खड़ा कर दिया है. ये नकाब इन्सान की धर्म-प्रदत छदम आचरण व कायरता का आवरण है. भीड़ के चेहरे में हर कोई अपने वास्तविक रूप को छुपाना चाहता है, जिनके ख़िलाफ़ वो लड़ रहे है वो उन्हीं के पड़ोसी, व्यापरी या मित्र है. लेखक के कथन में ऐसा प्रतीत होता है की मानों इस भीड़ में उपस्थित हर आदमी के दिल में इंसानियत जिंदा तो है पर मजहब के नाम पर फ़ैली इस आग ने इसे कही कोने में धकेल दिया है.
      रचनाकर ने इस नाटक का बालमन पर प्रभाव दिखाने के लिए पतंग का प्रयोग किया है. धारा एक सौ चवालीस से पूरे शहर की हलचल तो थम जाती है, पर यह बालमन की चंचलता को बाँधने में अक्षम है. जहां बच्चे धर्म, मजहब से परे अपने दोस्तों के साथ पतंगबाजी करने को मचल रहे है, वहीं उनके परिवार के बड़े व ‘समझदार’ सदस्य उनके मन में मजहबी डर बैठाने का प्रयास करते है. अपने बच्चों को इस घड़ी में घर में कैद करके रखने के लिए लोग पड़ोसियों को हैवान व कसाई तक कहने से नहीं झिझकते.
     इस दौरान स्थिति सुधारने के सरकार के सभी प्रयत्न विफल होते जाते है. खानापूर्ति के लिए सरकारी अधिकारीयों का आनन-फानन में तबादला किया जाता है. लेखक ने बड़ी ही कुशलता से सरकारी अधिकारीयों का पक्ष भी प्रस्तुत किया है. स्थिति काबू में करने के प्रयास में पुलिस राह चलते निर्दोष लोगों को गिरफ्तार कर उन्हें अलग-अलग जेलों में फेंक देती है, जहां उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी जाती है. इन सबमें कई लोग मारे जाते है पर इंसानी जीवन का मोल कागज़ के पन्नों तक सिमटा रह जाता है. जैसे-तैसे दंगो का दौर शांत होता है तो इस सिमटती आँच पर राजनीति शुरु हो जाती है. अलग-अलग पार्टी के नेता अपना उल्लू साधने के लिए तरह-तरह के तर्क देते है. सत्ता पक्ष वाली पार्टी जहां मुआवजा बांटकर जनता को लुभाती है वहीं विपक्ष जनता को मुफ्त राशन बांटकर और सरकारी विफलता का उलाहना देकर जनता का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास करते है. लेखक ने यहाँ फिर मुखोटे का प्रयोग कर बखूबी दर्शाया कि यहीं वे लोग है जो सिर्फ़ अपनी वोट बैंक भरने के लिए, दंगे भडकाते है. आखिर में लेखक ने कर्फ्यू विराम के बाद की स्थिति का वर्णन किया है, समय के साथ दंगे तो शांत हो गए पर इसके परिणाम लोगों में तूफान बनकर घर किए हुए है. लोगों ने भविष्य की सुरक्षा में हमेशा खुले रहने वाले चौक व गलियों को लोहे के मजबूत गेट लगाकर ढाक दिया. दंगों के इन चंद दिनों के घाव भरने में सदियों का समय लग जाएगा. लेखक ने मशहूर अख़बार संपादक की व्यथा बतलाई है, जो अपने अख़बार में अपराध व मजहबी कड़वाहट की खबरे छापकर त्रसत है. जो चाहता है कि वो अपने अख़बार में शहर की समृद्धि, कला व छात्रों के उत्कृष्ट परिणाम छापे, पर दंगो का यह दाग इन सबको लील जाता है.
    प्रस्तुत नाटक अपने आप में पूरी एक दुनिया समेटे है. आज से वर्षो पहले लिखा गया नाटक पहले लिखा गया नाटक आज भी कितना वास्तविक है. लगता है जैसे लेखक ने मुजफ्फरनगर में हुए दंगे सोचकर ही यह लिखा हो, या शायद मजहब की हमारी सोच जरा भी नहीं बदली है. रचनाकार का सबसे उत्कृष्ट काम है किरदारों की वास्तविकता. कहानी में मर्म बढ़ाने के लिए समान्यत अन्य लेखक एक तबके विशेष को मजबूर व सरकारी अफसरों को कूर्र दिखाते है, पर लेखक ने किसी भी भाव से तटस्थ रहकर सबकी परिस्थियों का बखूब चित्रण किया है. इसलिए लगता है कि अगर मुस्लिम समुदाय के मोहल्ले को भी नाटकीय संरचना में शामिल किया होता तो कदाचित यह नाटक पूर्ण हो जाता. 
          एक अन्य सराहना योग्य बात है, लेखक की लेखन शैली आधुनिकता व मसला डालने की होड़ में सामान्यत अन्य रचनाकार अभ्रद शब्दों का अत्यधिक उपयोग करते है. वहीं किशोर सिन्हा ने कटुतम परिस्थियों में भी ऐसी भाषाशैली से परहेज किया है. पर इसके बाद भी भाषा व किरदार पूर्णतः परिस्थिति व परिबेश के अनुकूल बनी रही है.

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