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जोधपुर में कला व संस्कृति को नया आयाम देने के लिए एक मासिक हिंदी पत्रिका की शरुआत, जो युवाओं को साथ लेकर कुछ नया रचने के प्रयास में एक छोटा कदम होगा. हम सभी दोस्तों का ये छोटा-सा प्रयास, आप सब लोगों से मिलकर ही पूरा होगा. क्योंकि कला जन का माध्यम हैं ना कि किसी व्यक्ति विशेष का कोई अंश. अधिक जानकारी के लिए हमें मेल से भी संपर्क किया जा सकता है. aanakmagazine@gmail.com

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Wednesday 17 December 2014
क्या किसी कलपुर्जे का बदलना उसके वास्तविक संरचना को पुनः लौटा सकता है? क्या हम फिर से वही हो जाते है जो हम पहले थे? किसी अबूझ पहेली के समान है इन प्रश्नों की पड़ताल करना. फिर भी शिप ऑफ थीसियसआपको खुला निमंत्रण दे रही है कि आप इन जैसे अनगिनत प्रश्नों के पड़ताल में अपना सिर खपाएं. हर पूर्ण में कही-न-कही अपूर्ण छिपा है और हर अपूर्ण में पूर्ण होने की ललक रहती है. यहाँ पर कोई एक कहानी ना होकर एक मूल विचार है जो तीन छोटी-छोटी कहानियों में चलता हुआ अपनी परिणिति तक पहुँचता हैं.
पहली कहानीः मन की ऑंखे एक अजीब सी विजुअल पावर आपके अंदर भर देती है. जो शायद वास्तविक ऑंख भी न दे पाए. कान से सुनना और अपने कैमरे के माध्यम से वो सब लेना जो आपके सामने घटित हो रहा है. आपने जो खींचा उसका एक फॉर्म तो नेगेटिव से पोजिटिव में तब्दील हो जाना है. वही इसका दूसरा फॉर्म अपने हाथो की उँगलियों द्वारा फोटो को ऊपर से नीचे तक परखना के कही कोई कमी तो नहीं रह गई. सारे संशय मिलकर किसी कला के निर्माण में एक सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं. आपने जो तस्वीर ली, दर्शकों की पारखी नजर उसका आस्वादन किस रूप में करेगी यह आपको पता नहीं है. आपको तो बस! अपने काम में रत रहना पता है. मन के किसी कोने में अपने जीवन की सारी अनुभूति व स्पंदन किसी दृश्याभास के समान आलिया के जीवन में विद्यमान है और इन सब का कोलज उसके जीवन में इस कदर मौजू है की देख न पाने का गम भी बहुत छोटा मालूम पड़ता है. लेकिन यही कोलाज उसे दिखाई देने पर उसके जीवन में एक बड़ा हॉल्ट साबित होता है. वह अपने आपको इस अनजान मैले में खोई हुई सी पाती हैं. उसे अपने बॉयफ्रेंड और अपने बीच एक स्पेस महसूस होता है. जिस आलिया की फोटोग्राफी की तारीफ आर्ट गैलेरी आने वाले लोग करते है अब उसमे कोई स्पार्क नहीं है और वो अपने अस्तित्व की खोज के लिए सुदुर पहाड़ो का सफर तय करती है. वो एक पुल पर बैठी है कैमरे का शटर कवर उसके हाथ से फिसलता है और वाइड एंगल में हमें दूर तक पहाड़ो से घिरे एक विशाल दृश्य में उस पुर्जे की तलाश करने की बात कही जा रही है जो फिर से वही अनुभूति प्रदान करा पाए.
दूसरी कहानीः जब तक साँस हैं मुझे अपनी खोज में चलते जाना है. इस श्वेताम्बर को लौकिक संसार के आगे क्या है उसकी गुढ़ चर्चा में बड़ा मजा आता है. साथ-ही-साथ मैत्रेय जानवरों पर हो रहे प्रयोग के खि़लाफ़ एक मुहीम भी चला रहा है. शोध के लिए जिस निर्दय पूर्ण व्यवहार से उन्हें उपयोग किया जाता है, वह बिलकुल अनैतिक है उसकी नजर मै. इन्सान का जीवन अगर अमूल्य है और जिसकी रक्षा के लिए जानवरों के अंग अलग-अलग ड्रग्स को बनाने मे काम आते हैं. फिर उस बैजुबान की क्या गलती है जो बोल नहीं सकता और अपने हनन का खेल देख रहा है. अचानक उसको एक दिन पेट में जोर को दर्द महसूस होता है. कुछ समय बाद पता चलता हैं कि उसका लीवर बढ़ रहा है. डॉक्टर उसे दवा खाने की सलाह देता है जिसे वो मना कर देता है. क्योंकि वो औरों की तरह संवेदना हिन् होकर उन ड्रग्स का सेवन नहीं कर सकता. अपनी यात्रा-प्रवास के दौरान उसकी हालत निरंतर खराब होती रहती है. एक रोज पीड़ा सहने की क्षमता जबाब दे देती है और वो अपने इलाज के लिए तैयार हो जाता है. यहाँ पर फिर से कुछ प्रश्न खड़े हो जाते है. मसलन यह जगत मिथ्या है और हमारी असली यात्रा हमारे मरने के बाद शुरू होती है. इस तरह की अवधारणा रखने वाला एक जैन साधु अचानक भय से ग्रसत क्यो हुआ? कही-न-कही माया का आवरण अवचेतन मन में अपनी पकड़ छोड़ नहीं पाया. कोई काम हम अगर हम दबाब में करते है तो फिर आगे चलकर दमन की वृतिया हम पर भारी पड़ जाती है. ऐसा कहा जाता है कि देह का साथ छुटने पर भी हम कॉसमॉस में विचरण करते रहते है. निर्विकल्प समाधि की अवस्था में पहुँचना इतना आसान नहीं हैं. चित्त की उच्चतम अवस्था को छुना हर मनुष्य के लिए इतना आसान काज नहीं है.
तीसरी कहानीः एक संवेदना शून्य व्यक्ति जो हर वस्तु केवल अपने फायदे और नुकसान के लिए ही चुनता है. कैसे एक छोटा सी घटना उसके जीवन की दिशा मोड़ देती है. नवीन अपनी नानी के साथ मुम्बई के टाउन साइड वाले इलाके मे रहता है. कोलाबा से दादर तक के एरिया को मुम्बईया बोलचाल में टाउन साइड कहा जाता है. उसके किडनी के ऑपरेशन के बाद उसकी आँखो के सामने कुछ ऐसा घटनाक्रम होता है कि उसे यकीन नहीं होता है कि किसी ब्रेन डेड व्यक्ति की किडनी उसे लगाई गई है. वो अस्पताल के कोरीडोर में एक परिवार का विलाप सुनता है. कोई शंकर नाम का आदमी जिसका अपेंडिक्स का ऑपरेशन होना है उसकी किडनी भी गायब है. खूब सारे सवाल दिमाग में दौड़ते है. उसकी तलाश अपने डोनर का पता लगाने व शकर के साथ हुए खिलवाड़ के पीछे की कहानी जानने की शुरू होती है.  
अपनी नानी और अपने दरम्यान हर मुद्दे पर मतभेद पाता है. फिल्म में दोनों के बीच कोई बात की चर्चा होते हुए नवीन के मुंह से निकल पढ़ता है कोई कंडोम से बदलाव थोड़ी ही आता है जिसका प्रचार आप एक समय घूम-घूम कर करती थी. इस बात का सीधा सम्बन्ध कहानी से तो नहीं है लेकिन नवीन की नानी शायद आपातकाल के दौरान संजय गाँधी द्वारा चलाई जा रही परिवार नियोजन की किसी मुहीम का हिस्सा रही हो. कई सारे एनजीओ अंग प्रत्यारोपण के गौरख धंदे में लेगे हुए है. लेकिन नवीन की सारी कोशिश बेकार ही जाती है. उसे हतास देखकर नानी कहती है, ‘इतना ही होता है.आज वो नानी के सामने मौन है कुछ समझ नहीं आ रहा है क्या कहे. जिस दिन नवीन को नई किडनी लगाई गई उस दिन एक ही आदमी के आठ अंग अलग-अलग लोगों को लगाए गए. फिल्म तो वहाँ खत्म हो जाती है जहाँ उस मृत व्यक्ति द्वारा बनाया एक विडियो दिखाया जाता. जिसका शौक अलग-अलग गुफाओं में जाकर वहाँ मौजूद रिक्तता को कैद करना था. अपने शरीर में लगे नए अंग के साथ आलिया, मैत्रेय व नवीन यह विडियो देख रहे है. फिल्म के निर्देशक आनंद गाँधीकिसी प्रकार के रिसोल्व के मुड में नहीं है. जिस अवधारणा को उन्होंने पकड़ा है उसको दिमाग मे रखते हुए उनसे सुखद अंत की अपेक्षा रखना बेमानी ही होगा. आनंद गाँधीका रुझान शुरू से ही निज की खोज का ही रहा है और दर्शन उनका प्रिय विषय है. इससे पहने जो दो शोर्ट फिल्म उन्होंने बनाई है उनका आधार भी उन प्रश्नों की पड़ताल करना ही है हमारा इस यात्रा का मकसद क्या है? 
                                                                                                 अनिमेष जोशी

Wednesday 3 December 2014


                 मनीषा,‘शिगाफ़’ नामक तुम्हारे उपन्यास को पढ़ा और महसूस किया कि शब्दों की जादुई अनुभूति से अब तक क्यों कर वंचित रही! ‘कवरपेज़’ ही बहुत अपिल कर रहा था.जब किताब  खोली और जाना कि ये उन्नीस वर्षीया कनुप्रिया की कलाकृति है तो और भी अद्भुत लगा.तुमने अपने उपन्यास में अमिता के शब्दों में लिखा है “यही मेरी आदत है. जहाँ नहीं हूँ, वहाँ को, जहाँ हूँ, वहाँ याद करना. ”किन्तु तुम्हारी लेखनी में वो ताकत है कि पाठक बेशुध होकर तुम्हारे और तुम्हारे ही शब्दों में  खोया होता है. विदेशी, देशी और प्रांतीय भाषाओं का जो ज्ञान और नियन्त्रण है तुम्हारा वह अप्रतिम है. स्पेन के ‘सेन्सबेस्टियन’ शहर को या कि स्पेन की जीवन शैली को पाठक पूर्ण रूप से जीता हुआ  आगे बढ़ता है. इतना सजीव वर्णन है कि लगता है हम स्पेन की गलियों ही में घूम रहे हैं और साधारणीकरण इस प्रकार हो जाता है कि देश की याद का ‘नॉस्टेल्जिक’ एहसास भी सांसों में घुल-घुल जाता है.
कंप्यूटर का आधुनिक प्रयोग अति-सराहनीय है, मनीषा. तुम्हारे द्वारा अमिता का अपने ‘ब्लॉग’ पर लिखना और तारीख दर तारीख ‘ब्लॉग्स’ पर प्रतिक्रियाओं का मिलते रहना रोमांचकारी है. लगता है साहित्य को वैश्विकरण का नया जामा पहिनाया है तुमने. ’बर्बरयुग’ की और मानव जाति की वापसी, कितना बड़ा सत्य है. ऐसे कितने ही सत्य तुमने उधेड़े हैं, मनीषा. विस्थापन का दर्द सार्वभौमिक है. दर्द जो पूर्ण सत्य है ‘एब्सल्यूट टूर्थ.’ अपनी खुली जड़े लिये भटकना और कहीं न जम पाना, जहाँ से उखड़े वहाँ भी नहीं और जहाँ जमना चाहा वहाँ भी नहीँ. विस्थापन महज़ एक त्रासदी बन कर रह गया है. जब देशों का विभाजन होता है तब यह दर्द अपनी पीठ पर ढोकर एक पीढ़ी बुरी तरह टूटती है. किन्तु बिना विभाजन के जातिवाद, प्रांतवाद जैसे स्वार्थ या कि मानव के तुच्छ स्वार्थ अपनी ज़मीन से जिनको उखाड़ते हैं उनका दर्द ह्रदय विदारक हो जाता है, शब्द हीन चित्कार. तुम्हारी कलम से जो उपमाएँ पेजों पर उतरी हैं वो इतनी सटीक और सार्थक हैं कि उनकी बानगी में शब्दों का अभाव-सा लगता है. उनके अनूठेपन से ऐसा लगता है कि साहित्य ने अभी-अभी इन उपनाओं को छूआ है. कश्मीर के सौंदर्य का एक लंबा इतिहास  रहा है और आतकंवाद ने भी दुर्दिनों का एक विशाल खज़ाना स्थापित कर लिया है. अपने सौंदर्य के कारण धरा का स्वर्ग कहलाया जाने वाला कश्मीर, भारत का शीर्ष , इतिहास का गौरव. इस कश्मीर को न जाने कितने ही इतिहासकारों ने और साहित्यकारों ने अपने शब्दों में पिरोया है. किन्तु सच मानो मनीषा तुम्हारे द्वारा वर्णित कश्मीर का सत्य-कश्मीर के सौंदर्य से, कश्मीर के आतंकवाद से, कश्मीरी हिंदुओं के दर्द व पलायन से, जो साक्षात्कार कराता है शायद सम्बेत तरीके से तुमसे पहले किसी ने नहीं लिखा. तुम्हारी जन्मस्थली, जोधपुर में बैठे हुए मैं अपने तलवों के नीचे, ज़मीन की सतह के नीचे बिछी बारूद महसूस कर सकती हूँ. महसूस कर रही हूँ युवकों रहित गाँव के गाँव, जहाँ बूढ़ी आँखें आज़ भी अपने लाडलों के लौटने की राह तकती हैं. हरेक ‘चाँद के टुकड़े से चेहरे’ पर  ग्रहण सी डर की स्याही पुती देख सकती हूँ. महसूसती हूँ क्षत-विक्षत शरीर जो चलती-फिरती लाश का बोध कराते हैं...मौत से भी भयानक. आँखों में पलते सलोने सपनों को टूट-टूट कर बिखरते देखा है तुम्हारे शब्दों में और उनकी बिखरी किरचों से लहु-लुहान होते मानव को भी. विरोधाभास की पराकाष्ठा एक ओर बूटे-बूटे पर बिखरा सौदर्य और घृणित हिंसा के हाहाकार से सहमा मानव...झुलसे शहर ...स्तब्ध वृक्ष और ठिठकी हुई प्रकृति को तुम्हारी लेखनी ने जीवंत उकेरा है. उकेरा है तुमने अपने ही घरों में अपने वजूद को बचाने के लिए ढूंढते कोने और छितर-बितर हो जाने के भय  से स्वयं को बचाने के लिये जूझते शरीर को. संसार के नक्शे में एक प्रांत ऐसा भी है जो लहु-लुहान हुआ पड़ा है और उसकी मरहम पट्टी इसलिये नहीं की जायेगी क्योंकि विश्व राजनीति में अभी वहाँ बहुत कुछ होना बाकी है. प्रेम एक शास्वत सत्य है. यह किसी जाति, क्षेत्र, रूप-रंग, दौलत या किसी एक दिल की नहीं वरन हरेक दिल की मिल्कियत है. प्रेम की तीव्रता, उसके खंडन की तीव्र वेदना, प्रेम से अभिशप्त मन, कट्टर पंथियों द्वारा प्रेमियों को सज़ाएँ, इन सब संवेगों का जीवंत वर्णन है मनीषा तुम्हारे शब्दों में. कहीं तुम्हारे शब्द वादीयों में गुम हो जाते हैं तो कभी सुबकियों में घिरे (खो जाते हैं) होते हैं. कभी कंपा-कंपा देते हैं तो कभी दिलों में दहशत बैठा देते हैं. इन सब उद्गगारों का वर्णन अभी-अभी पास से गुज़रा सा लगता है. समस्त संवेदनाओं की अनुगूँज पाठक की साँसों में सुनाई देती है. जीवंत नारी त्रासदी के वर्णन के बाद भी तुम्हारी नायिका अमिता का ‘इयान बौंड’ से ‘जमान’ तक का सफ़र कई मोड़ लेता है और इस सफ़र में कई वसीम और यास्मीन साथ-साथ चलते है.-------      
                                                    कुक्कू शर्मा