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जोधपुर में कला व संस्कृति को नया आयाम देने के लिए एक मासिक हिंदी पत्रिका की शरुआत, जो युवाओं को साथ लेकर कुछ नया रचने के प्रयास में एक छोटा कदम होगा. हम सभी दोस्तों का ये छोटा-सा प्रयास, आप सब लोगों से मिलकर ही पूरा होगा. क्योंकि कला जन का माध्यम हैं ना कि किसी व्यक्ति विशेष का कोई अंश.
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Wednesday 3 December 2014
मनीषा,‘शिगाफ़’ नामक तुम्हारे उपन्यास को पढ़ा और महसूस किया कि शब्दों की जादुई अनुभूति से अब तक क्यों कर वंचित रही! ‘कवरपेज़’ ही बहुत अपिल कर रहा था.जब किताब खोली और जाना कि ये उन्नीस वर्षीया कनुप्रिया की कलाकृति है तो और भी अद्भुत लगा.तुमने अपने उपन्यास में अमिता के शब्दों में लिखा है “यही मेरी आदत है. जहाँ नहीं हूँ, वहाँ को, जहाँ हूँ, वहाँ याद करना. ”किन्तु तुम्हारी लेखनी में वो ताकत है कि पाठक बेशुध होकर तुम्हारे और तुम्हारे ही शब्दों में खोया होता है. विदेशी, देशी और प्रांतीय भाषाओं का जो ज्ञान और नियन्त्रण है तुम्हारा वह अप्रतिम है. स्पेन के ‘सेन्सबेस्टियन’ शहर को या कि स्पेन की जीवन शैली को पाठक पूर्ण रूप से जीता हुआ आगे बढ़ता है. इतना सजीव वर्णन है कि लगता है हम स्पेन की गलियों ही में घूम रहे हैं और साधारणीकरण इस प्रकार हो जाता है कि देश की याद का ‘नॉस्टेल्जिक’ एहसास भी सांसों में घुल-घुल जाता है.
कंप्यूटर का आधुनिक प्रयोग अति-सराहनीय है, मनीषा. तुम्हारे द्वारा अमिता का अपने ‘ब्लॉग’ पर लिखना और तारीख दर तारीख ‘ब्लॉग्स’ पर प्रतिक्रियाओं का मिलते रहना रोमांचकारी है. लगता है साहित्य को वैश्विकरण का नया जामा पहिनाया है तुमने. ’बर्बरयुग’ की और मानव जाति की वापसी, कितना बड़ा सत्य है. ऐसे कितने ही सत्य तुमने उधेड़े हैं, मनीषा. विस्थापन का दर्द सार्वभौमिक है. दर्द जो पूर्ण सत्य है ‘एब्सल्यूट टूर्थ.’ अपनी खुली जड़े लिये भटकना और कहीं न जम पाना, जहाँ से उखड़े वहाँ भी नहीं और जहाँ जमना चाहा वहाँ भी नहीँ. विस्थापन महज़ एक त्रासदी बन कर रह गया है. जब देशों का विभाजन होता है तब यह दर्द अपनी पीठ पर ढोकर एक पीढ़ी बुरी तरह टूटती है. किन्तु बिना विभाजन के जातिवाद, प्रांतवाद जैसे स्वार्थ या कि मानव के तुच्छ स्वार्थ अपनी ज़मीन से जिनको उखाड़ते हैं उनका दर्द ह्रदय विदारक हो जाता है, शब्द हीन चित्कार. तुम्हारी कलम से जो उपमाएँ पेजों पर उतरी हैं वो इतनी सटीक और सार्थक हैं कि उनकी बानगी में शब्दों का अभाव-सा लगता है. उनके अनूठेपन से ऐसा लगता है कि साहित्य ने अभी-अभी इन उपनाओं को छूआ है. कश्मीर के सौंदर्य का एक लंबा इतिहास रहा है और आतकंवाद ने भी दुर्दिनों का एक विशाल खज़ाना स्थापित कर लिया है. अपने सौंदर्य के कारण धरा का स्वर्ग कहलाया जाने वाला कश्मीर, भारत का शीर्ष , इतिहास का गौरव. इस कश्मीर को न जाने कितने ही इतिहासकारों ने और साहित्यकारों ने अपने शब्दों में पिरोया है. किन्तु सच मानो मनीषा तुम्हारे द्वारा वर्णित कश्मीर का सत्य-कश्मीर के सौंदर्य से, कश्मीर के आतंकवाद से, कश्मीरी हिंदुओं के दर्द व पलायन से, जो साक्षात्कार कराता है शायद सम्बेत तरीके से तुमसे पहले किसी ने नहीं लिखा. तुम्हारी जन्मस्थली, जोधपुर में बैठे हुए मैं अपने तलवों के नीचे, ज़मीन की सतह के नीचे बिछी बारूद महसूस कर सकती हूँ. महसूस कर रही हूँ युवकों रहित गाँव के गाँव, जहाँ बूढ़ी आँखें आज़ भी अपने लाडलों के लौटने की राह तकती हैं. हरेक ‘चाँद के टुकड़े से चेहरे’ पर ग्रहण सी डर की स्याही पुती देख सकती हूँ. महसूसती हूँ क्षत-विक्षत शरीर जो चलती-फिरती लाश का बोध कराते हैं...मौत से भी भयानक. आँखों में पलते सलोने सपनों को टूट-टूट कर बिखरते देखा है तुम्हारे शब्दों में और उनकी बिखरी किरचों से लहु-लुहान होते मानव को भी. विरोधाभास की पराकाष्ठा एक ओर बूटे-बूटे पर बिखरा सौदर्य और घृणित हिंसा के हाहाकार से सहमा मानव...झुलसे शहर ...स्तब्ध वृक्ष और ठिठकी हुई प्रकृति को तुम्हारी लेखनी ने जीवंत उकेरा है. उकेरा है तुमने अपने ही घरों में अपने वजूद को बचाने के लिए ढूंढते कोने और छितर-बितर हो जाने के भय से स्वयं को बचाने के लिये जूझते शरीर को. संसार के नक्शे में एक प्रांत ऐसा भी है जो लहु-लुहान हुआ पड़ा है और उसकी मरहम पट्टी इसलिये नहीं की जायेगी क्योंकि विश्व राजनीति में अभी वहाँ बहुत कुछ होना बाकी है. प्रेम एक शास्वत सत्य है. यह किसी जाति, क्षेत्र, रूप-रंग, दौलत या किसी एक दिल की नहीं वरन हरेक दिल की मिल्कियत है. प्रेम की तीव्रता, उसके खंडन की तीव्र वेदना, प्रेम से अभिशप्त मन, कट्टर पंथियों द्वारा प्रेमियों को सज़ाएँ, इन सब संवेगों का जीवंत वर्णन है मनीषा तुम्हारे शब्दों में. कहीं तुम्हारे शब्द वादीयों में गुम हो जाते हैं तो कभी सुबकियों में घिरे (खो जाते हैं) होते हैं. कभी कंपा-कंपा देते हैं तो कभी दिलों में दहशत बैठा देते हैं. इन सब उद्गगारों का वर्णन अभी-अभी पास से गुज़रा सा लगता है. समस्त संवेदनाओं की अनुगूँज पाठक की साँसों में सुनाई देती है. जीवंत नारी त्रासदी के वर्णन के बाद भी तुम्हारी नायिका अमिता का ‘इयान बौंड’ से ‘जमान’ तक का सफ़र कई मोड़ लेता है और इस सफ़र में कई वसीम और यास्मीन साथ-साथ चलते है.-------
कुक्कू शर्मा
कंप्यूटर का आधुनिक प्रयोग अति-सराहनीय है, मनीषा. तुम्हारे द्वारा अमिता का अपने ‘ब्लॉग’ पर लिखना और तारीख दर तारीख ‘ब्लॉग्स’ पर प्रतिक्रियाओं का मिलते रहना रोमांचकारी है. लगता है साहित्य को वैश्विकरण का नया जामा पहिनाया है तुमने. ’बर्बरयुग’ की और मानव जाति की वापसी, कितना बड़ा सत्य है. ऐसे कितने ही सत्य तुमने उधेड़े हैं, मनीषा. विस्थापन का दर्द सार्वभौमिक है. दर्द जो पूर्ण सत्य है ‘एब्सल्यूट टूर्थ.’ अपनी खुली जड़े लिये भटकना और कहीं न जम पाना, जहाँ से उखड़े वहाँ भी नहीं और जहाँ जमना चाहा वहाँ भी नहीँ. विस्थापन महज़ एक त्रासदी बन कर रह गया है. जब देशों का विभाजन होता है तब यह दर्द अपनी पीठ पर ढोकर एक पीढ़ी बुरी तरह टूटती है. किन्तु बिना विभाजन के जातिवाद, प्रांतवाद जैसे स्वार्थ या कि मानव के तुच्छ स्वार्थ अपनी ज़मीन से जिनको उखाड़ते हैं उनका दर्द ह्रदय विदारक हो जाता है, शब्द हीन चित्कार. तुम्हारी कलम से जो उपमाएँ पेजों पर उतरी हैं वो इतनी सटीक और सार्थक हैं कि उनकी बानगी में शब्दों का अभाव-सा लगता है. उनके अनूठेपन से ऐसा लगता है कि साहित्य ने अभी-अभी इन उपनाओं को छूआ है. कश्मीर के सौंदर्य का एक लंबा इतिहास रहा है और आतकंवाद ने भी दुर्दिनों का एक विशाल खज़ाना स्थापित कर लिया है. अपने सौंदर्य के कारण धरा का स्वर्ग कहलाया जाने वाला कश्मीर, भारत का शीर्ष , इतिहास का गौरव. इस कश्मीर को न जाने कितने ही इतिहासकारों ने और साहित्यकारों ने अपने शब्दों में पिरोया है. किन्तु सच मानो मनीषा तुम्हारे द्वारा वर्णित कश्मीर का सत्य-कश्मीर के सौंदर्य से, कश्मीर के आतंकवाद से, कश्मीरी हिंदुओं के दर्द व पलायन से, जो साक्षात्कार कराता है शायद सम्बेत तरीके से तुमसे पहले किसी ने नहीं लिखा. तुम्हारी जन्मस्थली, जोधपुर में बैठे हुए मैं अपने तलवों के नीचे, ज़मीन की सतह के नीचे बिछी बारूद महसूस कर सकती हूँ. महसूस कर रही हूँ युवकों रहित गाँव के गाँव, जहाँ बूढ़ी आँखें आज़ भी अपने लाडलों के लौटने की राह तकती हैं. हरेक ‘चाँद के टुकड़े से चेहरे’ पर ग्रहण सी डर की स्याही पुती देख सकती हूँ. महसूसती हूँ क्षत-विक्षत शरीर जो चलती-फिरती लाश का बोध कराते हैं...मौत से भी भयानक. आँखों में पलते सलोने सपनों को टूट-टूट कर बिखरते देखा है तुम्हारे शब्दों में और उनकी बिखरी किरचों से लहु-लुहान होते मानव को भी. विरोधाभास की पराकाष्ठा एक ओर बूटे-बूटे पर बिखरा सौदर्य और घृणित हिंसा के हाहाकार से सहमा मानव...झुलसे शहर ...स्तब्ध वृक्ष और ठिठकी हुई प्रकृति को तुम्हारी लेखनी ने जीवंत उकेरा है. उकेरा है तुमने अपने ही घरों में अपने वजूद को बचाने के लिए ढूंढते कोने और छितर-बितर हो जाने के भय से स्वयं को बचाने के लिये जूझते शरीर को. संसार के नक्शे में एक प्रांत ऐसा भी है जो लहु-लुहान हुआ पड़ा है और उसकी मरहम पट्टी इसलिये नहीं की जायेगी क्योंकि विश्व राजनीति में अभी वहाँ बहुत कुछ होना बाकी है. प्रेम एक शास्वत सत्य है. यह किसी जाति, क्षेत्र, रूप-रंग, दौलत या किसी एक दिल की नहीं वरन हरेक दिल की मिल्कियत है. प्रेम की तीव्रता, उसके खंडन की तीव्र वेदना, प्रेम से अभिशप्त मन, कट्टर पंथियों द्वारा प्रेमियों को सज़ाएँ, इन सब संवेगों का जीवंत वर्णन है मनीषा तुम्हारे शब्दों में. कहीं तुम्हारे शब्द वादीयों में गुम हो जाते हैं तो कभी सुबकियों में घिरे (खो जाते हैं) होते हैं. कभी कंपा-कंपा देते हैं तो कभी दिलों में दहशत बैठा देते हैं. इन सब उद्गगारों का वर्णन अभी-अभी पास से गुज़रा सा लगता है. समस्त संवेदनाओं की अनुगूँज पाठक की साँसों में सुनाई देती है. जीवंत नारी त्रासदी के वर्णन के बाद भी तुम्हारी नायिका अमिता का ‘इयान बौंड’ से ‘जमान’ तक का सफ़र कई मोड़ लेता है और इस सफ़र में कई वसीम और यास्मीन साथ-साथ चलते है.-------
कुक्कू शर्मा
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