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जोधपुर में कला व संस्कृति को नया आयाम देने के लिए एक मासिक हिंदी पत्रिका की शरुआत, जो युवाओं को साथ लेकर कुछ नया रचने के प्रयास में एक छोटा कदम होगा. हम सभी दोस्तों का ये छोटा-सा प्रयास, आप सब लोगों से मिलकर ही पूरा होगा. क्योंकि कला जन का माध्यम हैं ना कि किसी व्यक्ति विशेष का कोई अंश.
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Sunday 8 June 2014
डॉ. विकास कपूर
यों तो किसी का भी जाना
दुखदायी होता है. पर जब एक हँसती खिलखिलाती किशोरी, नौकरी के सिलसिले में यात्रा
करते हुए सड़क दुर्घटना की शिकार हो जाती तो कलेजा मुँह को आ जाता है. अपने छोटे से
जीवन काल में इस किशोरी ने जिन व्यक्तियों से जुड़ाव रखा होगा, वे सब उमड़ पड़े थे
परिजनों का दुख बाँटने और सम्वेदना व्यक्त करने के लिए. शोक सभा में कुछ लोगों ने उपस्थिति
जनसमूह को संबोधित करते हुए दिवंगत आत्मा को एक अच्छी इंसान, एक नेक, परोपकारी व्यक्तित्व
की धनी, मेधावी छात्रा, मित्रों-रिश्तेदारों की लाड़ली आदि कहा. एक छोटा-सा समूह इस
पूरी प्रक्रिया के दौरान वहाँ मौजूद था. एक खामोश, अफसुर्दा और सहमा हुआ समूह. वे
एक संस्था से जुड़े रंगकर्मी थे जो उस किशोरी के साथ कुछ प्रस्तुतियों में कार्य कर
चुके थे. यद्यपि उन्होंने कुछ कहा नहीं पर अपनी सहकर्मिणी को रंगकर्मी की संज्ञा
से ना पुकारा जाना उन्हें विचलित कर गया था. सभा समाप्ति पर उस समूह ने मन हल्का
करने के मंतव्य से चाय की थड़ी का रुख किया.
दरअसल उन सभी को रह-रह कर उन
रंगप्रदर्शन और रंग महोत्सव
की स्मृतियाँ सता रही थीं जिसमे वे सब उस किशोर वय युवती के साथ नेपथ्य अथवा मंच
पार्श्व का कार्य कर
चुके थे. एक साथी याद करते-करते फफक पड़ा कि किस तरह भाग-भाग
कर सेट पर मिट्टी का लेप करने से लेकर, बोझा ढोने तक और बटन टाँकने से लेकर, भोजन
परोसने तक सभी काम वो लड़की बिना किसी शिकायत किए पूरा करती थी. और तो और, एक बार
जरूरत पड़ने पर, बिना किसी हील-इज्जत के, झट-पट मुँह पोत कर कोरस् के साथ मंच पर एंट्री
भी ले ली थी. और अब बिना कुछ कहें-बिना कुछ सुने curtain call से एक्ज़िट ले ली !
यह कैसे संभव है?
रंगकर्मियों के बीच अक्सर यह कहा जाता है कि यह विधा
पीर-बावर्ची-मिस्ती-खर सबका तजुर्बा देती है. और उस पर तुर्रा
यह कि जब तक आप अग्रिम पंक्ति के निर्देशक या मुख्य अभिनेता नहीं हैं तो कोई आपको जाने गा भी नहीं. फिर चाहे आप हुलस-हुलस के कहते रहिये कि आप कोरस् की दूसरी पंक्ति में दाँए से तीसरा
मैं था, या फला नाटक के सेट को मैंने पेंट किया है वगैराह- वगैराह.
अक्सर
बातचीत के बीच में ऐसा वक्फ़ा आ जाता
है जब सभी चुप हो जाते हैं. शायद सुनी हुई बात को जज्ब करने के लिए या
व्यक्त-अव्यक्त भावो में सामंजस्य बैठाने के लिए. ऐसी ही स्थिति उस दिन चाय की थड़ी पर बन पड़ी
थी. मैं दावे के साथ तो नहीं कह सकता पर मुझे ऐसा आभास हुआ जैसे उस छोटे से समूह
का हर सदस्य उहापोह की स्थिति में फँसा हुआ है. जहाँ एक ओर अकाल मृत्यु की
निर्ममता उन्हें कचोट रही थी. वहीं दूसरी ओर अपने को रंगकर्म से जोड़े रखने की
निरर्थकता उन्हें साल रही थीं. मैं भी सोचने लगा हम सीनियर रंगकर्मी हर
नए संकट से यह कहते आए हैं कि यह विधा समर्पण माँगती है, त्याग माँगती है आदि. और
यह कह-कह कर हम अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं. उनसे हर तरह का काम निकलवाते रहते है.
कभी प्रोडक्शन संबंधित कभी
ब्रोशर छपाई; कभी कॉसट्यूम तैयार करवाने के लिए तो कभी प्रोक्सी करने सरीखा काम
करने के लिए उन्हें आगे कर दिया जाता है. और यह रंगरुट, सब देखते हुए, समझते हुए
कार्य करते चले जाते हैं. और
यह जानते हुए कि हम उन्हें किसी भी तरह से compensate नहीं कर पॉएगे. न नाम से, और
न ही समुचित दाम से. गोया कि-
फ़ुगाँ के इस गरीब को, हयात
का यह हुक्म है
कि समझ हरएक राज़ को, मगर
फरेब खाए जा
आश्चर्य इस बात का है
कि यह दीवाने रंगरुट स्वेच्छा से नींव के पत्थर बनने चले आते हैं. सैकड़ों की संख्या में ना
सही, पर निरंतर आते हैं. और अपना कार्य कर बड़ी ही शाइस्तगी
से वापस चले जाते हैं. मैं समझता हूँ रंगकर्म आज़ जीवित है तो इन दीवानों की वजह से, न
ही उन ‘भड़कीले कँगूरों’ से जो हर ऊँची जगहों पर जमे बैठे हैं-फायदा उठाने के लिए. न जाने क्यों, आज़ उस किशोरी के बहाने
सब नीवं के पत्थर याद आ रहे
हैं जो अप्रशंसित चले गए. बहरहाल चाय पी जा चुकी थी. विदा लेने से पूर्व एक रंगकर्मी
बोल पड़ा ‘लगता ही नहीं आकांक्षा चली गई है...लगता है वो यहीं कहीं है... हमारे बीच’. सब लोग आवक् उसे देखने लगे. सच ही तो कहा
उसने. रंगकर्मियों की आकांक्षा
मरी नहीं है. आकांक्षाएं मरनी भी नहीं चाहिए.
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1 comments:
मन को दु:ख से भर देने वाली पोस्ट।
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