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जोधपुर में कला व संस्कृति को नया आयाम देने के लिए एक मासिक हिंदी पत्रिका की शरुआत, जो युवाओं को साथ लेकर कुछ नया रचने के प्रयास में एक छोटा कदम होगा. हम सभी दोस्तों का ये छोटा-सा प्रयास, आप सब लोगों से मिलकर ही पूरा होगा. क्योंकि कला जन का माध्यम हैं ना कि किसी व्यक्ति विशेष का कोई अंश.
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Tuesday 3 June 2014
सुषमा त्रिपाठी
बंगाल को देश की सांस्कृतिक राजधानी माना जाता है, और
संस्कृति का प्रभाव यहा के शिल्प पर भी दिखायी पड़ता है। आप चाहे विश्वभारती के बाटिक
की बात करें या जूट के उत्पाद की या फिर मूर्तिशिल्प खासकर शोला के काम की, एक
खास तरह की सादगी और अभिजाज्यता बगाल की कलाओं में साफ तौर पर दिखायी पड़ती है। खासकर
उत्सवों के दौरान आज भी बंगाल के पारंपरिक घरों में शोला यानि बंगला भाषा में कहें
तो डाकेर साज का बेहद महत्व है।
शोला एक तरह का पौधा है, जिसकी छाल को सुखाकर उससे कागज से भी पतला सफेद फाइबर तैयार होता हैं जिससे प्रतिमाओं के आभूषण तैयार किये जाते हैं। खासकर धार्मिक उत्सवों के दौरान इसकी मांग काफी बढ़ जाती है, शायद इसकी सादगी ही इसका बल है। पूजा कोई भी हो, डाकेर साज ही वास्तविक तौर पर सजावट के लिए इस्तेमाल किया जाता है और दुर्गापूजा तो ऐसा समय है जिसका इंतजार यहां के कारीगर साल भर करते हैं। बंगाल के मुशिर्दाबाद से लेकर दक्षिण 24 परगना से लेकर उत्तर 24 परगना और कोलकाता के प्रख्यात कुम्हारटोली के छोटे - छोटे घरों में शोला का काम होता है। मूर्तिकारों को जहां कुम्हारटोली में पाल कहा जाता है, वहां शोला का काम करने वाले कारीगर मालाकार कहे जाते हैं।
बंगाल में हस्तशिल्प की खरीददारी करने के लिए आने वाले पर्यटक शोला से
बने हस्तशिल्प की खरीददारी करना नहीं भूलते। देखा जाये तो शोला दो रूपों में रोजगार का साधन बनता है, चूंकि यह एक पौधा है, तो इसकी खेती होती है, इसलिए यहां किसानों को लाभ होता है और तैयार शोले की जरूरत इस लोक शिल्प में पड़ती है। यह खेती भी गांवों या उपनगरीय इलाकों में स्वनिर्भर समूहों द्वारा की जाती है। जाहिर है कि साल भर रोजगार के लिए उत्सवों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता इसलिए शोला कारीगर आजकल वॉल हैंगि्ग से लेकर आभूषण और शोपीस तक तैयार कर शोला को सदाबहार बनाने की कोशिश कर रह् हैं।
अगर बंगाल की परम्परा की बात हो तो शोला से बना मुकुट विवाह के समय वर और वधु, दोनों के लिए आवश्यक होता है। यहां तक कि बच्चे के अन्नप्राशन के समय भी इस मुकुट का इस्तेमाल किया जाता है। शोला दिखता थर्मोकॉल की तरह ही है मगर जब मजबूती और गुणवत्ता की बात हो तो शोला भारी पड़ता है। आज भी कई दुकानों में या पूजा के समय सजावट के लिए शोला के फूल बंगाल में देखे जा सकते हैं। शोला भी अब मनोहारी रंगों में ढल रहा है जिससे इसकी खूबसूरती और बढ़ रही है। आज शोला हस्तशिल्प की मांग बढ़ रही है मगर विकास की मार इस कला पर भी पड़ी है। तकरीबन हर बंगाल के हर बाजार में शोला का बाजार भी है और कारीगर भी मगर कच्चे माल की कमी शोला हस्तशिल्प की समस्या बनती जा रही है।
कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट के एक बाजार में शोला का सामान बेचने वाले दुकानदार परिमल घोष ने बताया कि विकास की चाह में तेजी से तालाब पाटे जा रहे हैं जिससे शोला की खेती ही नहीं हो पा रही है। यही वजह है कि मांग रहने पर भी कई कारीगर कच्चे माल की कमी के कारण यह काम छोड़ रहे हैं। जाहिर है कि यह स्थिति चिंताजनक है मगर शोला के प्रति बंगाल का मोह यकीनन एक उम्मीद पैदा करता है।
शोला एक तरह का पौधा है, जिसकी छाल को सुखाकर उससे कागज से भी पतला सफेद फाइबर तैयार होता हैं जिससे प्रतिमाओं के आभूषण तैयार किये जाते हैं। खासकर धार्मिक उत्सवों के दौरान इसकी मांग काफी बढ़ जाती है, शायद इसकी सादगी ही इसका बल है। पूजा कोई भी हो, डाकेर साज ही वास्तविक तौर पर सजावट के लिए इस्तेमाल किया जाता है और दुर्गापूजा तो ऐसा समय है जिसका इंतजार यहां के कारीगर साल भर करते हैं। बंगाल के मुशिर्दाबाद से लेकर दक्षिण 24 परगना से लेकर उत्तर 24 परगना और कोलकाता के प्रख्यात कुम्हारटोली के छोटे - छोटे घरों में शोला का काम होता है। मूर्तिकारों को जहां कुम्हारटोली में पाल कहा जाता है, वहां शोला का काम करने वाले कारीगर मालाकार कहे जाते हैं।
बंगाल में हस्तशिल्प की खरीददारी करने के लिए आने वाले पर्यटक शोला से
बने हस्तशिल्प की खरीददारी करना नहीं भूलते। देखा जाये तो शोला दो रूपों में रोजगार का साधन बनता है, चूंकि यह एक पौधा है, तो इसकी खेती होती है, इसलिए यहां किसानों को लाभ होता है और तैयार शोले की जरूरत इस लोक शिल्प में पड़ती है। यह खेती भी गांवों या उपनगरीय इलाकों में स्वनिर्भर समूहों द्वारा की जाती है। जाहिर है कि साल भर रोजगार के लिए उत्सवों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता इसलिए शोला कारीगर आजकल वॉल हैंगि्ग से लेकर आभूषण और शोपीस तक तैयार कर शोला को सदाबहार बनाने की कोशिश कर रह् हैं।
अगर बंगाल की परम्परा की बात हो तो शोला से बना मुकुट विवाह के समय वर और वधु, दोनों के लिए आवश्यक होता है। यहां तक कि बच्चे के अन्नप्राशन के समय भी इस मुकुट का इस्तेमाल किया जाता है। शोला दिखता थर्मोकॉल की तरह ही है मगर जब मजबूती और गुणवत्ता की बात हो तो शोला भारी पड़ता है। आज भी कई दुकानों में या पूजा के समय सजावट के लिए शोला के फूल बंगाल में देखे जा सकते हैं। शोला भी अब मनोहारी रंगों में ढल रहा है जिससे इसकी खूबसूरती और बढ़ रही है। आज शोला हस्तशिल्प की मांग बढ़ रही है मगर विकास की मार इस कला पर भी पड़ी है। तकरीबन हर बंगाल के हर बाजार में शोला का बाजार भी है और कारीगर भी मगर कच्चे माल की कमी शोला हस्तशिल्प की समस्या बनती जा रही है।
कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट के एक बाजार में शोला का सामान बेचने वाले दुकानदार परिमल घोष ने बताया कि विकास की चाह में तेजी से तालाब पाटे जा रहे हैं जिससे शोला की खेती ही नहीं हो पा रही है। यही वजह है कि मांग रहने पर भी कई कारीगर कच्चे माल की कमी के कारण यह काम छोड़ रहे हैं। जाहिर है कि यह स्थिति चिंताजनक है मगर शोला के प्रति बंगाल का मोह यकीनन एक उम्मीद पैदा करता है।
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