About

जोधपुर में कला व संस्कृति को नया आयाम देने के लिए एक मासिक हिंदी पत्रिका की शरुआत, जो युवाओं को साथ लेकर कुछ नया रचने के प्रयास में एक छोटा कदम होगा. हम सभी दोस्तों का ये छोटा-सा प्रयास, आप सब लोगों से मिलकर ही पूरा होगा. क्योंकि कला जन का माध्यम हैं ना कि किसी व्यक्ति विशेष का कोई अंश. अधिक जानकारी के लिए हमें मेल से भी संपर्क किया जा सकता है. aanakmagazine@gmail.com

सदस्यता

सदस्यता लेने हेतु sbbj bank के निम्न खाते में राशि जमा करावे....

Acoount Name:- Animesh Joshi
Account No.:- 61007906966
ifsc code:- sbbj0010341

सदस्यता राशि:-
1 वर्ष- 150
2 वर्ष- 300
5 वर्ष- 750

राशि जमा कराने के पश्चात् एक बार हमसे सम्पर्क अवश्य करे....

Animesh Joshi:- +919649254433
Tanuj Vyas:- +917737789449

प्रत्यर्शी संख्या

Powered by Blogger.
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Blogger templates

Blogger news

Sunday 29 March 2015
दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं एक तो वे जो भीड़ में चलते हैं यानी कि उनमें ऐसा कुछ खास नहीं होता कि हम उन्हें याद करें या उनके बारे मे बात करें लेकिन साथ ही ये भी है कि कुछ लोग बातें तो करते ही हैं चाहे बात करने लायक हो या नहीं उन्हें तो सिर्फ बात करने या कहना चाहिए कि बात बनाने से मतलब है ये तो हुए यक तरह के लोग पर दूसरी तरह के लोग कुछ अलग होते हैं उनका समूह नहीं होता वे तो सिर्फ खास व्यक्ति होते हैं और कुछ खास होने के नाम पर आप ऐसा बिल्कुल न समझें कि उनकी शारीरिक रचना सामान्य लोगों से कुछ अलग होती है हाँ लेकिन मानसिक संरचना ज़रूर थोड़ी अलग होती है तभी तो वे कुछ ऐसा करते हैं कि भीड़ से अलग माने जाते हैं।
समाज के पुराने ढर्रे पर चलना जैसे उनके व्यक्तित्व के खिलाफ हो। वे तो हमेशा कुछ अलग करने की फिराक़ में ही रहते हैं और यही फितूर भीड़ से अलग कर देता है। कभी-कभी तो इतना अलग किम वे एक इतिहास बन जाते हैं और कभी वर्तमान का अति विकसित हिस्सा। ऐसा सोचने और करने वालों में ज्यादातर युवा हैं जो अजीब और अटपटे लगकर खुद को भीड़ से अलग दिखाने की चेष्टा में तल्लीन रहते है और वे अलग नहीं बल्कि विचित्र नज़र आते हैं और सामान्य लोग उन्हें मानसिक विक्षिप्तता का शिकार मानने लगते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि जो लोग अलग दिखने की चाह में अलग कार्यों को अंजाम देते हैं वे इस श्रेणी में आते हैं। पर कुछ लोग तो स्वभावतः ही अलग होते हैं , उन्हें इसके लिए किसी शारीरिक श्रम और तकनीक की आवश्यकता नहीं होती। बस वह तो अपनेआप ही हो जाता है। कभी-कभी ऐसे लोग सामाजिक बदलाव लाने वाले नींव के पत्थर साबित होते हैं। और ऐसे लोगों को कुछ लोग अपना आदर्श बनाकर उन्हें फोलो करने लगते हैं।
आज जब से मैं निशा से मिली हूँ न जाने क्यों ये सब सोचने पर मजबूर हो गयी। निशा मेरे बचपन की सहेली है कई सालोइ बाद आज बाज़ार में उससे मिली तो खुशी का ठिकाना न रहा लेकिन वह उतनी खुश नहीं लग रही थी। मैंने कारण पूछा तो वह उस समय टाल गई लेकिन मैं उसे लेकर पास के कॉफ़ी शॉप में गयी। जहाँ हमने ढेर सारी बातें की और जो बातें वह टाल रही थी वहाँ उसने अपना दिल खोल कर रख दिया उसने जो बताया उस पर यक़ीन करना बहुत मुश्किल था उस वक़्त के लिए। लेकिन अभी जब मैं उसके बारे में सोच रही हूँ तो लग रहा है कि इसमें कुछ भी तो नया नहीं है अक्सर ऐसा ही तो होता है।
कॉलेज में या कहें कि स्कूल से ही निशा और राहुल साथ-साथ थे लेकिन बचपन का यह साथ दोस्ती की पकड़ से छूट कर प्यार में बदल गया उसका एहसास निशा और राहुल को बाद में हुआ लेकिन पूरा कॉलेज तो कब का यह जान चुका था। और मैं भी जब कभी उन्हें इस बात का एहसास दिलाने की कोशिश करती तो वे इसे मज़ाक समझते। लेकिन एक दिन निशा की शादी की बात उसके परिवार में हुई और लड़के वाले देखने आये तो निशा मेरे पास आई और बोली “मैं राहुल से प्यार करती हूँ और उसके बिना किसी और के साथ ज़िन्दगी बिताना मेरे लिए पॉसिबल नहीं है।” अचानक हुई इस बात से मैं भी चौंक गई ख़ैर मैंने सहेली होने का फ़र्ज़ निभाते हुए राहुल को फोन करके बुलाया और तब उस दिन दोनों ने स्वीकार किया कि वे एक –दूजे के लिए बने हैं और कभी अलग नहीं होंगे। और उसके बाद तो उनका प्यार बढ़ता ही गया।
ये सब कुछ एक फिल्म जैसा था मेरे लिए लेकिन यह एक हकीकत थी और चूँकि दोनों अलग-अलग जाति के थे दोनों के माता-पिता शादी के लिए तैयार नहीं थे लेकिन आज के गरम खून के बहाव को रोकना पुरानी पीढ़ी के बस की बात नहीं थी और उन दोनों ने कोर्ट में जाकर शादी कर ली और उसकी साक्षी बनी मैं। मेरी माँ ने मुझे इसके लिए बहुत डाँटा लेकिन मुझ पर कोई असर न था आख़िर मैं भी तो नई पीढ़ी का ही एक हिस्सा थी। मैं बहुत खुश थी कि मेरी वजह सेस मेरे दोस्तों का जीवन पूर्ण हुआ।
शादी के तुरंत बाद वे दोनों शहर छोड़कर चले गए,  ये सोचकर कि अपने नये जीवन की शुरुआतवे एक नये शहर से करेंगे और पिछले पाँच सालों से मेरा कोई संपर्क नहीं रहा उनसे। पाँच सालों बाद आज हम मिले। आज उसे देखते ही मुझे लगा कि ये अब वह पुरानी चहकती निशा नहीं रही। हमेशा खुश रहने वाली मेरी सहेली बहुत गंभीर और ज़िंदगी से निराश जान पड़ती है। कारण था कि शादी के बाद जैसे-जैसे परिवार बना और ज़िम्मेदारियाँ बढ़ने लगी प्यार न जाने कहाँ काफ़ूर हो गया। उसकी एक बेटी भी है जो अभी चार साल की है। उसने बताया कि राहुल और उसके बीच वह प्यार नहीं रहा जो कभी हुआ करता था। अब तो वे बात-बात पर झुँझलाते हैं और लड़ते भी हैं। दोनों ही पढ़े-लिखे हैं, स्वावलंबी हैं और स्वतंत्रता भी चाहते हैं। लेकिन पुरुष प्रधान समाज में नारी की स्वतंत्रता कहाँ संभव है?  शादी होते ही, पति बनते ही न जाने क्या हो जाता है कि वह सम्पूर्ण स्त्री पर अपना अधिकार जताने लगता है और उसे भी अपनी सम्पत्ति समझने लगता है। वह प्यार जो दोस्ती और बराबरी से शुरु हुआ था शादी के बाद अधिकार में बदल गया। यह बदलाव अरेंज मैरिज में  ही नहीं होता बल्कि प्रेम विवाह में भी ऐसा ही होता है। मैंने देखा हे मेरे माँ-पिताजी और उनके जैसे न जाने कितने ही दम्पत्ति पति-पत्नी तो हैं, जीवन-साथी तो हैं लेकिन सिर्फ़ नाम के। उनका जीवन मुझे समझौते और जिम्मेदारी के सिवा कुछ नहीं लगता।
आज जब मैं खुद को देखती हूँ , खुद के बारे में सोचती हूँ तो खुश होती हूँ  अपने फैसले पर  हालाँकि इसके लिए मुझे बहुत लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी थी और आज तक भी लड़ रही हूँ क्योंकि भारतीय समाज में शादी न करने का फैसला वह भी एक लड़की का आसान नहीं है। और उससे भी मुश्किल तो ये बात कि अपने किसी दोस्त के साथ बिना शादी किए रहना लेकिन पिछले तीन सालों से मुझे या मनीष को कभी एक पल के लिए भी यह अफ़सोस नहीं हुआ कि हमने ग़लती की है या कर रहे हैं हम दोनों अलग होके भी एक हैं और एक होकर भी अलग। हम दोनों के बीच कोई समझौता नहीं है बल्कि आपसी समझ है हम ने मिलकर एक घर बनाया है मकान नहीं। मैंने एक अनाथ बच्ची को गोद भी लिया है और यह मेरा फैसला था इसलिए मैं ही उसकी ज़िम्मेदारी भी उठाती हूँ। मनीष इसके लिए बाध्य नहीं है। अगर वह उसके लिए कुछ करना चाहता है तो कर सकता है। मनीष का मुझ पर अधिकार नहीं है बल्कि प्यार है जिसका एहसास वह समय समय पर करवाता रहता है। हमारे संबंध सिर्फ़ मन तक नहीं है बल्कि यह प्यार मन ही से तन तक भी पहुँचता है और यह स्वाभाविक है कि प्रेम हालाँकि एकअनुभूति है जिसे सिर्फ़ महसूस ही किया जा सकता है लेकिन इसका इज़हार भी ज़रूरी है और इसमें कभी-कभी मन के साथ तन का मिलना भी ज़रूरी है। और मुझे और मनीष को इसमें तनिक भी असहजता या असाधारणता नज़र नहीं आती। लेकिन  हमारे परिवारों को ये स्वीकार्य नहीं है और सिर्फ  परिवार ही नहीं बल्कि हमारे भारतीय समाज को भी इसमें शर्म आती है आख़िर क्यों ? क्योंकि इसमें स्त्री पर अंकुश नहीं है या कि फिर अपनी अर्धांगिनी बनाने के बहाने उसके स्व को छिन्न-भिन्न करना जिसमें वह अपनी मर्ज़ी से सोचने तक का अधिकार नहीं पाती है ।

बहुत सवाल हैं मेरे पास शायद इन्हीं सवालों के जवाब ढ़ूँढने की कोशिश में हूँ और इस समाज के विपरीत दिशा में सोचने ही नहीं बल्कि चलने के कारण मैं साधारण सी लड़की होके भी भीड़ से अलग हूँ और मुझे इसका गर्व है।
रश्मि शर्मा

0 comments: