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Friday 25 July 2014


भावना लालवानी

"चार अध्याय"  रवीन्द्रनाथ टैगोर का बहुत प्रसिद्द उपन्यास है , इसकी पृष्ठभूमि है ३० और ४० के दशक का बंगाल का क्रांतिकारी आतंकवाद और उस आन्दोलन से जुड़े संगठनों के भीतरी हालात और ख़ास तौर पर  क्रांतिकारी आन्दोलन में  औरतों की भूमिका, जो ३० के दशक में इस आन्दोलन की  सब से बड़ी विशेषता थी और जो  इसके पहले कभी इतने बड़े पैमाने पर खुल कर नहीं दिखी थीउस पर आधारित है..

रवीन्द्रनाथ को इसी पर ऐतराज था ..औरतों का हिंसक या ध्वंसात्मक गतिविधियों में हिस्सा लेना , जो उनके मुताबिक़ उनकी वात्सल्य और ममतामय प्रकृति के खिलाफ है.  और इसीलिए उन्होंने ये दिखाया है कि जब हम कुदरत के बनाए नियमों  और अपनी स्वाभाविक प्रवृति -प्रकृति के विरुद्ध  जाकर काम करते हैं तो उसका परिणाम निराशा, पराजय और पछतावे के अलावा और कुछ नहीं रहता.



 ... और दूसरी बात,  "चार अध्याय" सीधे तौर पर  क्रांतिकारी  आन्दोलन  के एक कम दिखने वाले और छिपे हुए पक्ष को सामने लाता है, वो चेहरा जो आमतौर पर देशप्रेम, बलिदान, शहादत  गौरव की भारी-भरकम शब्दावली के आगे दिखाई  नहीं दिया या जानबूझ कर जिसे छुपाया गया...अब कहना मुश्किल है कि रवीन्द्रनाथ जो बताना चाह रहे हैं वो सचमुच ऐसा ही था या नहीं..इस पर तो कोई इतिहासकार ही रौशनी डाल सकता है, मैं यहाँ सिर्फ अपने विचार लिख रही हूँ ..

           ये उपन्यास बताता है कि किस तरह दल के  मुखिया ही अपने दल के सदस्यों  को किनारे कर देते थे जो अब उनके किसी काम के नहीं रह गए या जो अपने हिस्से का काम कर चुके और अब उनसे छुटकारा पा लेने में कोई बुराई नहीं या ऐसे भी लोग जो दल के  बारे में, उसके सदस्यों के बारे बहुत कुछ जान चुके हैं या उनकी व्यक्तिगत ज़िन्दगी उनके काम को प्रभावित कर रही है. ये क्रांतिकारी आन्दोलन का ऐसा क्रूर चेहरा था जिसे फ़र्ज़ और  देश के नाम पर जायज़ माना गया. भले ही इसके लिए निर्दोष लोगों को वक़्त-बेवक्त मरना या मारना पड़ा या  कभी व्यक्तिगत रंजिशों के नाम पर या दल का तथाकथित शुद्धिकरण ...बहाना कुछ भी हो सकता था ...             
सबसे बड़ी समस्या ये थी कि किसी भी बड़ी-छोटी  आतंकवादी घटना में गिरफ्तारी होने के बाद जो जेल और यातनाओं का दौर शुरू होता था..उसकी असलियत वहाँ पहुँचने पर ही सामने आती  थी और उन नौजवानों के परिवार और लगभग हर वो इंसान जो कभी भी, किसी भी रूप में उन बेचारे "आतंकवादियों"  से  जुड़ा रहा, उसका भी शेष जीवन नरक ही होना निश्चित था. यही कारण  था कि बलिदान और व्यक्तिगत शौर्य का जो रास्ता दिखाया गया उसकी निरर्थकता वे लोग खुद भी समझने लगे थे. भगत सिंह ने भी बाद के दिनों में अपनी जेल डायरी में लिखा था कि "युवा हिंसक क्रांति का रास्ता छोडें और खुलकर आन्दोलन चलायें" ..और इसी के चलते हम देखते हैं कि ४० का दशक आते आते ज्यादातर क्रांतिकारी या तो समाजवादी बन गए  या कम्युनिस्ट.  उस समय के अन्य प्रमुख क्रांतिकारियों ने भी यही माना बाद में  कि, व्यक्तिगत बलिदान की घटनाओं से कुछ वक़्त के लिए लोगों को अपनी तरफ आकर्षित किया जा सकता है , अपनी विचारधारा का प्रचार भी किया जा सकता है, लेकिन अंततः आज़ादी का रास्ता राजनीतिक आन्दोलन से ही गुज़रता है.

ख़ास तौर से जब रवीन्द्रनाथ ये दिखाते हैं किस तरह आन्दोलन के लिए पैसा जुटाने के लिए कई बार क्रांतिकारियों को आम लोगों  को भी लूटना या मारना पड़ता था तब समझ आता है कि
क्यों क्रांतिकारी आतंकवाद को खुलकर आम जनता का समर्थन नहीं मिल पाया...लेकिन फिर हमारे  सामने सूर्य सेन और बंगाल के दूसरे क्रांतिकारियों  के संघर्षों के भी उदाहरण हैं ही..इसलिए काफी दुविधा जैसी स्थिति दिखती है..पर ये तो सच ही है कि क्रांतिकारिता नौजवानों से आगे नहीं बढ़ी ...
                      
फिलहाल लौटते हैं मूल विषय, यानी उपन्यास की कहानी की तरफ, अर्थात एला और अतीन की तरफ जो इस कहानी के मुख्य पात्र हैं. मुझे लगता है कि बहुत हद तक मानववादीआधुनिक और  प्रगतिशील मानसिकता का होने के बावजूद रवीन्द्रनाथ औरतों के प्रति अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाए या उनकी इस  भूमिका को स्वीकार नहीं कर सके. आखिर जिस देश काल और समाज में वो रह रहे थे , विश्वकवि होने के बावजूद उसकी सीमाओं और आयामों से परे नहीं जा सके.  एक बात और यहाँ कहनी होगी कि "चार अध्याय" मूलतः एक प्रेम कथा है, और हमें इस कहानी को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा..हालाँकि यहाँ प्रेम कथा आज़ादी के लिए तथाकथित  संघर्ष के साथ इस तरह घुलमिल गई है कि दोनों को अलग करना मुश्किल हो जाता है..जैसा कि रवीन्द्रनाथ ने अतीन से कहलवाया भी है कि  " देश  की साधना और  तुम्हारी साधना एक हो जाने के कारण ही देश इसमें दिखाई देता है"....क्रांतिकारिता अतीन का लक्ष्य नहीं था, उसकी अभिरुचि  भी नहीं है  लेकिन एक बार इसमें शामिल होने के बाद पीछे हटने का उपाय नही. 

अब आते हैं एला पर, उसका चरित्र बहुत  से उतार  चढ़ाव से गुजरता है ...कहानी की शुरुआत में उसका चरित्र एक अदभुत ऊंचाई और शक्ति के साथ पाठकों के सामने आता है और बस बाँध लेता है अपने आकर्षण में...इंद्रनाथ उसकी क्षमताओं को उस से बेहतर समझते हैं या उनके विचार से  एला से बेहतर और ज्यादा भरोसेमंद (उसकी विशेष पारिवारिक परिस्थितियों और खुद उसके व्यक्तित्व के कारण ) और कोई हो नहीं सकता...जो भी है ..एला हालाँकि खुद को इतने ऊँचे आसन पर देखना नहीं चाहती ..पर साधारण जीवन , एक साधारण मनुष्य की तरह बिताना भी उसके वश में नहीं ..और कुछ देश प्रेम और बलिदान के गौरव के कारण इस दिशा में खिंची आई है. लेकिन जैसे जैसे क्रान्ति और बलिदान की वास्तविकता सामने आ रही है , वो इंद्रनाथ की आलोचना से भी नहीं झिझकती.


 यहाँ इंद्रनाथ के चरित्र को अनदेखा करके आगे नहीं जा सकते, आखिर ये सारा किस्सा कहानी उन्ही के बनाये हुए सांचे के इर्दगिर्द चलती है. मेरे ख्याल से वो एक ऐसे आत्माभिमानी शख्स के रूप में सामने आता है जो अपनी योग्यता और श्रेष्ठता को साबित करने के लिए इतने सारे लोगों को एक ही अंधे  बंद रास्ते की तरफ धकेलता जा रहा है....हालाँकि उसे खुद और उसके सबसे विश्वस्त साथी कन्हाई गुप्त को भी पता है कि इस तरीके से  वे लोग ब्रिटिश  राज को हिला नहीं सकते ..पर फिर भी अपना अलग रास्ता बनाने के लिए और अपनी शक्ति दिखाने   के लिए वे लोग इस रास्ते पर बढ़ते जा रहे हैं. शायद उसे ये पता भी है और तभी वो इंद्रनाथ से कहता है . ."..अंत में खतौनी के खाते में आग लगाकर हम लोगों से मज़ाक  ना करना भाईसाहब..उसके हरेक सिक्के में  हमारी छाती का खून है "..लेकिन अतीन इस भीतरी विरोधाभास को एला या और किसी भी दूसरे से ज्यादा बेहतर तरीके से और समय रहते ही समझ भी जाता है .

   लेकिन जैसे ही अतीन का कहानी में प्रवेश होता है, एला उसके बाद फीकी पड़ने लगती है, एला उसकी परछाई  सी ही लगती है..फिर वो विद्रोही एला, दृढ प्रतिज्ञ एला की जगह अतीन के लिए रोने वाली कोई कमज़ोर लड़की , जो सब दिशायें, सब रास्ते भूल गई है..जिसकी चेतना, उर्जा और प्रयास सब खो गए हैं. एला में आगे जाकर जो कमजोरी या बिखराव दिखता है उसका कारण या जवाब बहुत सरल है, कि जब मस्तिष्क पर प्रेम की आज्ञा शासन करती है तब और कोई नियम कायदा या क़ानून महत्त्व नहीं रखता (अब इसे  आप  मेरा व्यक्तिगत अनुभव या विचार ना माने ..मैंने सिर्फ उपन्यास में दिखाए गए घटनाक्रम के विश्लेषण का प्रयास किया है )

एक कारण ये भी है कि आँखें  बंद किये जिस रास्ते पर चलने का उपदेश इंद्रनाथ दे रहे हैं और एला उसमे आगे बढ़ने को प्रोत्साहित  कर रही है उसकी वास्तविकता  जब अतीन के ज़रिये जैसे जैसे सामने आती जाती है, वैसे वैसे एला का प्रण भी कमज़ोर होता गया लेकिन उतने समय में अतीन आगे निकलता गया.साथ ही जब वो देखती है कि अतीन का दल में आना और उसका ये सब अकथनीय तकलीफें झेलना किसी महान उद्द्देश्य का हिस्सा नहीं, साथ ही उसकी स्वयं की प्रकृति के भी खिलाफ है तब उसके सारे प्रण, प्रतिज्ञाएं, नियम टूटने या छूटने  पर आ जाते हैं ..पर अब  पीछे जाने या कहीं आगे बढ़ने का कोई रास्ता शेष नहीं.
 .           
...अतीन का चरित्र जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है, वैसे वैसे मज़बूत होकर निखरता जाता है, रवीन्द्रनाथ ने उसको ऊँचा उठाने में कोई कमी नहीं छोड़ी है..अब ऐसा कहने के पीछे कोई शिकायत नहीं है क्योंकि उसी के ज़रिये क्रांतिकारी आन्दोलन के इस छिपे चेहरे को सामने लाना है और ऐसा साफ़ नज़र आता है कि इस पूरे कथानक में एक अतीन्द्र ही है जो स्पष्ट रूप से जानता है कि वो दल  में क्यों शामिल हुआ .....ना देश के लिए, ना आज़ादी जैसा कोई लक्ष्य है, लेकिन क्योंकि अपनी पसंद से और मर्ज़ी से इस रास्ते का चुनाव किया है इसलिए उसके प्रति ईमानदारी  भी है.   कहानी का अंत दुखांत है ..जब एला को अतीन खुद मार देता है  क्योंकि अब उसकी उपयोगिता दल के लिए समाप्त हो गई है और वो किसी समझौते के लिए भी तैयार नहीं है ऐसे में  यही  एक सम्मानजनक उपाय बचा है और  अतीन के लिए तो पहले से ही दल और उसके कुछ सदस्यों ने trap तैयार कर ही रखा है.

             इस उपन्यास  के लिए रवीन्द्रनाथ को बहुत कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी ..एला को बाद में जिस तरह प्यार और अपने दल के लिए निष्ठां के बीच संघर्ष करते दिखाया और अतीन को किसी सिंहासन पर बिठाने  की  कसरत में उपन्यास  का एक प्रमुख  उद्देश्य ...क्रांतिकारी आन्दोलन की निरर्थकता ..वो कहीं गायब हो गया ..लेकिन चूंकि रवीन्द्रनाथ ने खुद ही कहा था कि ये एक प्रेम कथा है और इस उसी  रूप में देखा जाना चाहिए इसलिए इसे पढ़ते वक़्त भी यही बात मुख्य रूप से याद रखनी होगी ....दो साधारण लोग जो असाधारण परिस्थितियों में फंसे हैं.

 हर आन्दोलन के दो पक्ष होते हैं, उजला और स्याह ..एक वो जो लोगों की श्रद्धा और सम्मान हासिल करता है दूसरा अँधेरे, नफरत और उपेक्षा के ही काबिल होता है ...कोई भी राजनीतिक या ऐसा कोई आन्दोलन चाहे वो दुनिया के किसी भी हिस्से में हुआ हो, इस नियम का अपवाद नहीं है ...यहाँ  मुझे दो और किताबें याद आ रही है. एक तो कुर्रतुल एन हैदर का "आखिरी शब् के हमसफ़र"  और दूसरा लेखक का नाम अब याद नहीं पर  उपन्यास का शीर्षक था "अनित्य " ..ये दोनों ही उपन्यास क्रन्तिकारी आन्दोलन, गांधीवादी राजनीति और कम्युनिस्ट आन्दोलन के अंदरूनी हालात, उनकी कमजोरियों और आज़ादी के बाद उनके वो बड़े बड़े नाम जो कभी सिद्धांत और विचारधारा का पर्याय थे उनकी असलियत को बड़ी खूबसूरती से सामने लाते हैं..


    इसलिए  पूरी तरह तो रवीन्द्रनाथ से  सहमत होना कठिन है क्योंकि  जैसा कल्पना दत्ता ने कहा था .. "हमारा बलिदान आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करेगा और  इसी में हमारी मृत्यु की सार्थकता है"....शायद इसी पक्ष को टैगोर अनदेखा कर गए..फिर भी मेरे विचार से एक बेहतरीन और  अदभुत प्रेम कथानक पर आधारित उपन्यास जिसे खुले दिमाग से पढ़ा जाना चाहिए.

2 comments:

Bhavana Lalwani said...

kaafi din baad visit kiya hai aapka blog aur sach mein ye nai template aur blog theme bahut achhi hai .. thnk u for pondering over my suggestions.. ye template bahut sundar lag rahi hai .. light, soothing and ethnic ..

Anita Sabat said...

Congrats to Bhavana.
Great post :) I have not read this book as yet. Looks interesting.
Yes, the template is very soothing & the text is pleasing to the eyes.