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Saturday 24 January 2015
पाकिस्तानी सिपाही – चांदनी चौक में घर की छत पर चाँद ऐसे निकलता था जैसे मेरी घाट पर ही गिर पड़े....ओये, लाहौर के चाँद ने तो मुंह ही नहीं लगाया कभी.
हिन्दुस्तानी सिपाही – अपने-अपने चाँद बदल ले, ओये!”

हिन्दू – साब, लक्ष्मण के अकेले की बात कहाँ रही....वो किशन तो हम सबका भाई था....हम सब हिन्दुओं का भाई....उसकी बॉडी हमें ही मिलनी चाहिए....अगर तुम इन मुसलमानों को खुश करने के लिए निर्णय ले रहे हो....तो एक बात याद रखना....तुम पुलिसवाले और मुसलमान पछतायेंगे, बहुत पछतायेंगे.
मुसलमान – साब, अगर हमारी बॉडी हमें ना मिली ना....तो याद रखना....इन सबको कब्र में दफना देंगे....यह सब आ जायेंगे कब्रिस्तान में....बहुत बड़ा कब्रिस्तान है हमारा....फैमस है.”

 कितना अजीब संयोग है, दोनों ही संवादों में एक हिन्दू है तो दूसरा मुसलमान, फर्क बस एक लकीर का है, जिनके बीच लकीर है वो उसे मिटाकर भाईचारा-सोहार्द बढ़ाने की कोशिश कर रहे है और जिनके बीच किसी भी तरह की कोई लकीर नहीं वो नफरत की लकीर खींचने को बढ़ावा दे रहे है. पहला संवाद ‘विजयराज’ अभिनीत-निर्देशित फिल्म ‘क्या दिल्ली क्या लाहौर’ का है, तो दूसरा संवाद ‘गाँधी माय फादर’ के लिए नेशनल अवार्ड जीत चुके निर्देशक ‘फिरोज अब्बास खान’ की फिल्म ‘देख तमाशा देख’ का.  दोनों ही फिल्में एक-दुसरे के बिल्कुल विपरीत है. “क्या दिल्ली क्या लाहौर” बंटवारे के करीब एक साल के बाद के हालात पर है, सरहद पर अपने-अपने देश के लिए लड़ते दो ऐसे सिपाहियों की कहानी है जो बदले हालत में भूख-प्यास से लड़ते बंदूक की भाषा-गोलियों की भाषा भूलकर प्यार की भाषा सीख जाते है. वहीँ “देख तमाशा देख” एक राजनेता के विशाल कटआउट के नीचे दबकर मर गए एक गरीब आदमी की धार्मिक पहचान ढूंढने के चक्कर में भारत के राजनैतिक-सामाजिक चरित्र को उजागर करती है.
  ‘क्या दिल्ली क्या लाहौर’ गुलजार की पंक्तियों में सरहद की लकीर को स्वीकार करते हुए कबड्डी खेलने का आह्वान करते हुए विभाजन के बावजूद भाईचारे पर जोर देती है, तो ‘देख तमाशा देख’ एक मृत व्यक्ति को सिर्फ जलाने या दफनाने की एवज में एक कफ़न के वास्ते दो कौमों के टकराव के साथ सरहद के भीतर विभाजन को दर्शाती है. जब देश के भीतर ही भाईचारा नहीं है, तो पडौसी मुल्क से भाईचारे की उम्मीद तो बेवकूफी ही होंगी. सीमा पर वो दोनों सिपाही अपने-अपने चाँद को exchange करने की बात कर रहे है, लेकिन सीमा के भीतर तो हम एक-दुसरे को expire करने में लगे हुए है.

हिन्दुस्तानी सिपाही – टाइम बता फिर?
पाकिस्तानी सिपाही – साढ़े छ:.
हिन्दुस्तानी सिपाही – ओये, हमारी घडी में तो बादशाहों सात बजे है...घडी तो आपकी ख़राब हो गई.
पाकिस्तानी सिपाही – हाँ, तुम लोग तो वैसे भी आधे घंटे आगे हो ना हमसे.
हिन्दुस्तानी सिपाही – चलो...शुकर है रब का...माने तो सही...पुतरजी...कि कहीं ना कहीं हम आपसे आगे है और आप हमसे पीछे...हैं ना...हहाहाहा.”
     
        यहाँ जो हंसी है वो किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं है, एक तरह का उपहास है, एक तरह का ताना है उन लोगो के खिलाफ़ जिन्होंने ऐसे बादशाहों का समर्थन किया जो गद्दी के खातिर ऐसी सरहद बना डाली जिससे आधे घंटे का फासला पड़ गया और अब वे ही लोग लाहौर में बैठे चांदनी चौक में कोरमे की खुशबु याद कर रहे है या चांदनी चौक में बैठे लाहौर की लस्सी याद कर रहे है. लेकिन जहाँ घडी की सुइयां सब जगह एक-सी चल रही है, एक ही वक्त दिखा रही है, वहां भी हम ऐसे ही बादशाहों का समर्थन कर रहे है जो वोट के खातिर हमारे बीच नफरत पैदा कर रहे है, हमें प्रोत्साहित कर रहे है की हम एक-दुसरे को पीछे धकेले और ऐसा करते अपना-अपना बाहुल्य स्थापित करने के चक्कर में, हम न जाने कितने अनगिनत घंटो का फासला पैदा कर चुके है.

शब्बो – गाँव में दो पार्टियों का झगडा चल रहा है.
प्रशांत – दूसरी पार्टी मतलब?
शब्बो – तुम लोगों की पार्टी.
प्रशांत – मैं कब से दूसरी पार्टी का बन गया?
शब्बो – तो फिर तू कौनसी पार्टी का है?
प्रशांत – शब्बो, मैं इस पार्टी का भी नहीं और उस पार्टी का भी नहीं, मेरी अपनी तीसरी पार्टी है.
शब्बो – तीसरी पार्टी!
प्रशांत – प्यार करने वालो की पार्टी...हम लड़ते-झगड़ते है...लेकिन प्यार से...हम करीब आने के लिए झगड़ते है...दूर जाने के लिए नहीं.”
         
         एक इतिहास का बुजुर्ग लेखक व विचारक प्रोफ़ेसर शास्त्री(सतीश आलेकर) जिन्होंने अपनी किताब में उस गाँव के जहरीले इतिहास को प्रस्तुत किया, तो उस किताब को पढ़े बगैर असामाजिक तत्वों ने उसकी सभी प्रतियों को जला दिया. एक मुस्लिम युवा लेखक जो मुसलमानों को भड़काऊ भाषण देते मौलाना(सुधीर पांडे) के खिलाफ फ़तवा जारी करता है, उसके घर को उसकी ही कौम के लोगो द्वारा जला दिया जाता है. समुन्द्र किनारे पाल पर बैठे यह दो प्रेमी प्रशांत-शब्बो जो सिर्फ एक-दुसरे से प्यार के सिवा किसी मजहब का फर्क नहीं समझते, घर से भागते वक्त प्रशांत(आलोक राजवाड़े) को मुसलमान गोली मार देते है.
         एक बेचारा गरीब किशन जो मुस्लिम औरत फातिमा(तन्वी आज़मी) का तांगा चलाते-चलाते उसे अपना दिल दे बैठता है और उससे शादी के खातिर अपना धर्म बदलकर हामिद बन जाता है और एक फातिमा, जो गाँव के बदले हालात-बवाल के लिए हर वक्त खुद को जिम्मेदार ठहराती है कि उसने किशन से शादी की ही क्यूँ?, या उसे हामिद के साथ गाँव छोड़कर चले जाना था. प्रशांत की हत्या के बाद शब्बो(अपूर्वा अरोरा) अपनी माँ फातिमा से जब पूछती है कि ‘आप मेरी और प्रशांत की शादी करवाती ना’, तो वो इंकार कर देती है. लेकिन शब्बो का अगला सवाल ‘अगर मैं भाग जाती तो’, फातिमा का जवाब था ‘मैं तुझे नहीं रोकती’. जिन सांप्रदायिक दंगो के दोषी होने का दर्द वो भोग रही है, वैसा ही दर्द वो अपनी बेटी शब्बो के हिस्से नहीं आने देना चाहती है. वो कभी नहीं चाहती कि प्रशांत इस गाँव के लिए दूसरा हामिद बने. यह सब लोग तीसरी पार्टी के लोग है जो किस मजहब से ताल्लुक रखते है कि फिकर किये बिना, अपने आप को इंसानियत के धर्म के बाशिंदे समझते है.
             आदमी ने आग खोजी. चक्का बनाया और खेती शुरू कर दी. खेतों की देखभाल के लिए उनके बीच झोंपड़ी बना ली. कुंए खोद लिए और बस्तियां बस गईं. सबकुछ सही चल रहा था तो फिर बवाल कब शुरू हुआ? जिस दिन एक आदमी ने एक डंडी उठाकर जमीन पर एक घेरा बनाया और कहा जमीन का यह टुकड़ा मेरा है और यह टुकड़ा तेरा है. टुकड़े घटते-बढ़ते गए, लेकिन फसाद लगातार बढ़ते गए. सल्तनत बनीं, मुल्क बने. इंसान हर वक्त इसी गलतफ़हमी में रहा कि अगर खुद को बाहुबली बनाना है तो अपना खुद का एक टुकड़ा होना चाहिए और इन टुकड़ो की ग़लतफहमी में इंसान धीरे-धीरे बिगड़ता चला गया, इतना बिगड़ गया कि एक दिन भूल ही गया कि वो जिन टुकड़ो के भीतर टुकड़े कर रहा है उन्हें कभी जमीन पर डंडी के घेरे की जरुरत ही ना पड़ी.
          ‘रन’, ‘देहली बेली’, ‘डेढ़ इश्कियां’ में अपने अभिनय का लोहा मनवा कर निर्दशक की ओर रुख करने वाले अभिनेता विजय राज का कहना है कि “गुलजार साहब उनके निर्देशन में बनी फिल्म क्या दिल्ली क्या लाहौरके गीत लिखने व उसके निर्माता बनने के लिए तैयार हो गए थे लेकिन यह निर्णय उन्होंने फिल्म देखने के बाद ही किया. गुलजार साहब ने उनसे कहा था कि पहले फिल्म बनाओ फिर हम देखेंगे. जब उन्हें यह फिल्म दिखाई गई तो उन्होंने इसे बहुत पसंद किया और वे इस फिल्म का हिस्सा बनने के लिए राजी हो गए”.
         पाकिस्तानी सिपाही रहमत का किरदार खुद विजय राज ने निभाया है, वहीँ हिन्दुस्तानी सिपाही(बावर्ची) समर्थ के किरदार में मनु ऋषि चड्ढा ने सबके चौंकाया है. इसके अलावा राज जुत्शी और विश्वजीत प्रधान भी छोटे रोल में मुकम्मल असर छोड़ते हैं. यह फिल्म बोस्निया हर्जेगोविना की फिल्म ‘नो मैंस लैंड’ की कहानी से काफी मिलती-जुलती है जिसने ऑस्कर में लगान को हराया था. वहां भी दो अलग पालों में खड़े सिपाही मानवीय त्रासदी का आख्यान अपनी कहानियों और संवादों के जरिए सुनाते हैं. यहां भी कुछ ऐसा ही है.
          ‘तुम्हारी अमृता’, ‘सालगिरह’, ‘महात्मा वर्सेस गांधी’, ‘सेल्समेन रामलाल’ जैसे नाटकों का सफल मंचन कर ‘गाँधी माय फादर’ फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड जीत चुके निर्देशक फिरोज अब्बास खान के मुताबिक़ “इस फिल्म में दिखायी गयी घटनाएं सच्ची हैं. कई साल पहले मुझे एक अवकाशप्राप्त पुलिस आयुक्त ने कहानी सुनाई थी, जिसने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया था. जब मैं अपनी पहली फिल्म बना रहा था तब भी मुझे यह कहानी फिल्म बनाने के लिए प्रेरित करती थी. अब जाकर मैं इसे बना पाया हूँ और जब तक इस फिल्म का निर्माण नहीं हो जाता उनकी अंतरात्मा पर बोझ बना रहता”.
          फिल्म में सतीश कौशिक ने अवसरवादी राजनेता की भूमिका निभाई है जो स्थानीय अख़बार के मालिक भी है. वहीँ हिंदू नेता बांडेकर के रोल में शरद पोंक्शे व मुस्लिम नेता सत्तार भाई के रोल में जयवंत वाडेकर का अभिनय प्रशंसनीय है जो अंत में पूरा मामला निपट जाने के बाद नाव में एक-दुसरे से हाथ मिलाते हुए हँसते हुए दिखाई पड़ते है. विनय जैन पुलिस अधिकारी विश्वासराव के रूप में, पुलिस इंस्पेक्टर सावंत के रूप में गणेश यादव का अभिनय सहज महसूस होता है.

और अंत में गुलजार की पंक्तियाँ....

“लकीरें है, तो रहने दो....
किसी ने रूठ कर....
गुस्से में शायद, खींच दी थी....
इन्ही को बनाओ अब पाला...
और आओ, कबड्डी खेलते है....
मेरे पाले में तुम आओ, मुझे ललकारो....
मेरे हाथ पर तुम हाथ मारो, और भागो....
तुम्हे पकडू, लिपटू....
और तुम्हे वापस ना जाने दूं....
लकीरें है, तो रहने दो....
किसी ने रूठ कर....

गुस्से में शायद, खींच दी थी....”         - तनुज व्यास

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