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Monday 16 March 2015
‘नानी बाई रो मायरो’ गुजरात और राजस्थान का एक
प्रसिद्ध लोक-आख्यान है‐ बीती तीन-चार सदियों में नरसी जी
के
जीवन के इस प्रसगं ने नरसी से अलग अपना एक स्वतंत्र चरित्र,
एक स्वायत्त
स्वरूप ग्रहण कर लिया‐ इस आख्यान को बार-बार रचने और तरह-तरह से कहने और गाने
वालों में से बहुतों को पता भी नहीं है कि नरसिहं महेता भक्तिकालीन साहित्य के
प्रसिद्ध कवि भी थे और उन्होंने ‘वैष्णव जन तो तेहेने कहिए, जे पीड परायी जाणे रे‐’ जैसे प्रसिद्ध पद की रचना की थी‐
आगे चलकर जिसे
गुजरात के ही एक और महात्मा,
महात्मा गाँधी
ने अपनी प्रार्थना सभाओं में गाया था‐ लोक मे ‘नरसी जी का भात’ गाने वालों को इस बात से
प्रायः लेना-देना नहीं है कि नरसी कवि थे या नही थे उन्हे तो
लनेा-देना है नरसी नाम के उस गरीब पिता से जिसके पास अपनी बेटी की
बेटी के विवाह में भात के चार कपड़े ले जाने लायक पूंजी भी नहीं थी और इस कारण उसे
घोर तिरस्कार झेलना पडा़ था‐ इधर गांव मे अपने भाई-बंधुओं द्वारा उपहास उड़ाया जाना
और उधर समधी पक्ष द्वारा अपमानजनक टिप्पणिया करते हुए उपहास उड़ाया जाना, लोक के कवि नरसी जी के जीवन
की इस विडम्बना को अपने जीवन के बहुत करीब पाते है‐ यही वजह है कि वे ‘नरसी जी के भात’ के माध्यम से उस
प्रताडऩा को बार-बार रचते हैं. जो उन्हें गरीबी के कारण
पग-पग पर झेलनी पड़ती है‐ उस अपमान को कहते हैं जो उन्हें अपने श्रमषील और
मानवीय जीवन के बावजदू केवल इसलिए झेलना पड़ता है कि उनके पास जमा-पूजी कुछ
भी नहीं है‐ इस आख्यान की लेाक प्रियता का दूसरा कारण बेटियों से जुडा़ पहलू
है‐ बेटियों को सुसराल में पीहर की गरीबी को लेकर जो
ताने सुनने पडत़े है बात-बात में जो दबकर चलना, दबकर रहना पड़ता है, इतना दबकर कि वहा उनका अस्तित्व ही हंसी का पात्र
हेा के रह जाता है‐ उनके व्यक्तित्व में किस कदर हीनता आ जाती है इसका अनुमान इस
लोक-आख्यान में आने वाले इस प्रसगं से लगाया जा सकता है कि जब नरसी
अपने निर्धन सधियो के साथ भात के लिए पहुचंते है तो उनकी बेटी उनसे कहती
है-आप यहाँ क्यों आए, आपकी इस दषा में आना तो मेरा और अपमान होगा‐ भात या मामेरा-एक रष्म
है जिसमें बेटी की संतानों के विवाह के अवसर पर उसके पीहर वाले ससुराल पक्ष के लिए
वस्त्र लेकर जाते है। आर्थिक रूप से टूटे हुए परिवारों के लिए यह
दहेज की तरह ही एक और विकराल समस्या है। भात में कितना और क्या दिया, इससे समाज में परिवार की प्रतिष्ठा बनती-बिगड़ती
है। राज्य की आर्थिक नीतियों के चलते आम-जनता का जीना वैसे ही
मुहाल हुआ रहता है, ऐसे में एकाएक आ धमकने वाले इस खर्चे से अनके परिवार और
परेशानी में आ जाते है। बेटी के सुसराल पक्ष की मोटी मागं और पीहर पक्ष द्वारा उसे कैसे भी करके पूरी न कर पाना इधर
घर-घर की कहानी है। ‘नरसी जी के भात’ की लोकप्रियता की यह भी एक वजह
है। पूर्वी राजस्थान में नरसी जी के भात के इतने लोकगीत हैं कि उनकी कोई एक स्क्रिप्ट तय करना संभव नहीं है। कोई
एक स्क्रिप्ट आप चुन तो सकते हैं लेकिन यह इतनी ही है और ऐसी ही है यह कहना संभव
नहीं
है। किसी और गांव में कोई अलग रूप उसका
मिल जाएगा। लोकगीत की किसी और शैली में लेकिन प्रसंग:नरसी के भात’ का ही होगा, वर्णन वही होगा लेकिन कहने का ढंग ,
संगीत, धुन, लय, बोल सब कुछ बदल जाएगा।
इसी अनोखेपन के चलते कहने का समय और स्थान भी बदल जाते है।
इससे जुड़ी हुई एक और दिलचस्प बात यह है कि लोक गीत की शैली
कन्हैया, ढांचा
या पद जो भी हो सभी में एक समानता देखने को मिलती है कि किसी में भी
गरीबी का रोना नहीं रोया गया है और गरीबी के चलते होने वाले हृदय-विदारक तिरस्कार को जितने मार्मिक ढगं से कहा गया
है, उतने
ही कड़े बोलों से धन
के मिथ्या-अभिमान को एक पल में ध्वस्त करके रख दिया है‐ और इस तरह गरीबी-अमीरी को महज
परिस्थिति जन्य चीज वस्तु मानकर मानवीय-जीवन के होने भर की उदारता व महता को
स्थापित किया है‐ प्रभात
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